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जैन गुर्जर कवियों की हिन्दी कविता
माना है। वे कहते हैं-१० वीं शताब्दी के आसपास आते आते देश की धर्म साधना विलकुल नये रूप में प्रकट होती है तथा यहां से भारतीय मनीषा के उत्तरोत्तर संकोचन का आरम्भ होता है । यह अवस्था अठारहवीं शताब्दी तक चलती रही। उसके बाद भारत वर्ष फिर नये ढंग से सोचना आरम्भ करता है ।
मध्यकालीन गुजराती माहित्य की (१५ वीं शती से १८ वीं शनी) राजनैतिक और सामाजिक पृष्ठभूमि भी विभिन्न हलचलों एवं अनेकों उथल-पुथल से आक्रांत रही । गजरात का लोकजीवन और साहित्य भी इन अन्यान्य परिस्थितियों के प्रभाव से अछूता नहीं रहा। गुजरात की संस्कृति विभिन्न धर्मों और सम्प्रदायों के प्रति समन्वय वृत्ति एवं उदार भावना का परिचय देती हुई समृद्ध एवं विकसित होती रही है । इस धार्मिक उदारता और साँस्कृतिक समन्वय का प्रतिबिंव गजराती तथा गजरात में सजित साहित्य पर भी पड़ा है। समस्त मध्यकालीन गुजराती साहित्य इसी धर्म-भावना से ओतप्रोत है।
हिन्दी भाषा तथा साहित्य के आदि स्रोतों के लिए अपभ्रंश का महत्व निविवाद है, और अपभ्रंश में जैन साहित्य अपरिमित है। यह जैन साहित्य सामाजिक और ऐतिहासिक विकास क्रम की दृष्टि से महत्वपूर्ण है । डॉ० वासुदेव शरण अग्रवाल के शब्दों में
___ "हिन्दी की काव्यधारा का मूल विकास सोलह आने अपभ्रंश काव्य धारा में अन्तनिहित है, अतएव हिन्दी साहित्य के ऐतिहासिक क्षेत्र में अपभ्रंश भाषा को सम्मलित किये विना हिन्दी का विकास समझ में आना असम्भव है । भापा, भाव
और शैली तीनों दृष्टियों से अपभ्रंश का साहित्य हिन्दी भापा का. अभिन्न अंग समझा जाना चाहिए। अपभ्रंश (८ वीं से ११वीं सदी) देशीभापा (१२वीं से १७वीं सदी) और हिन्दी (१८ वीं से आज तक) ये ही हिन्दी के आदि मध्य और अन्त तीन चरण है।"३
जैन साहित्य पर राजनैतिक और सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया का समर्थन करते हुए जैन साहित्य तथा इतिहास के मर्मज्ञ कामताप्रसाद जैन लिखते हैं
भारत के इस परिवर्तन (१५ वी से ५७ वीं शताब्दी) के प्रभाव से जैनी
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१. मध्व कालीन धर्मसाधना, आ० हजारी प्रसाद द्विवेदी, पृ० ६, १० २. वही, पृ०७१ ३. कामताप्रसाद जैन कृत "हिन्दी जैन साहित्य का संक्षिप्त इतिहास", प्राक्कथन, पृ०६
डॉ० वासुदेवशरण अग्रवाल ,