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जैन गुर्जर कवियों की हिन्दी कविता
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उपा० श्री यशोविजय ने पूर्ण किया । तार्किक शिरोमणी, प्रखर विद्वान् यशोविजयजी 'श्रीपाल रास' को पूर्ण करते हुए उनकी प्रशस्ति में लिखते हैं
'सूरि हीर गुरुनी बहु कीर्ति; कीर्तिविजय ऊवझायाजी । शिष्य तारु श्री विनय विजयवर, नाचक सुगुण सोहायाजी ॥७॥ निद्या निनय निवेक निचक्षण, लक्षण लक्षित देहाजी । मोभागी गीतारथ सारथ, संगत सबर सनेहा जी ॥८॥
इसे 'नवपद महिमा रास' भी कहा गया है, क्योंकि इसमें नव पद-अहंतु सिद्ध, आवार्य, उपाध्याय, साधु, दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप इन नव पद के सेवन से श्रीपाल राजा कितनी बड़ी महानता को प्राप्त करता है, इसी का वर्णन है। विनयविजय जी विरचिन इम राम की आरंभिक पंक्तियां इस प्रकार हैं
दोहा : "कल्पवेलि कवियण तणी, सरसति करी सुपसाय, सिद्धचक्र गुण गावतां, पूर मनोरथ माय । १ - अलियविधन सवि उपशमे, जपतां जिन चोवीश,
नमतां निजगुरुन पयकमल, जगमां वघे जगीश । २" । भाषा गुजराती मिश्रित राजस्थानी लगती है। इस प्रकार इन्होंने विविध भाषाओं में अनेक ग्रन्थों की रचना की है और प्राय: सभी उपलब्ध है। काणी मे रहने के कारण उन्होंने हिन्दी में भी समुचित योग्यता एवं भाषाधिकार प्राप्त कर लिया था। इनके हिन्दी पदों का संग्रह 'विनय-विलास'१ नाम से प्रकाशित हो गया है। इसमें कुल ३७ पद संगृहीत हैं। इन वैराग्य विषयक पदों में आत्मानुभव का सुमधुर स्त्रोत फूट पड़ा है।
विनय विजयजी ने काशी में रहकर अनेक शास्त्रों का गहन अध्ययन किया था और ये विः सवत् १७३६ तक विद्यमान थे। विस्तृत जीवन चरित्र के लिए 'शांतसुधारम' भाग २ द्रष्टव्य है।
'विनयविलास' एक विशिष्ट आत्मानुभूति मम्पन्न विद्वान की यह कृति है। इनके प्रारम्भिक साम्प्रदायिक ग्रन्थों को देखने से इस बात की प्रतीति होती है कि कवि प्रारम्भ मे जैनमत की ओर प्रवृत्त हुए पर आगे चलकर अपनी 'भाषा' की कविता मे अन्तर्मुखी हो गये और इनका संकुचित दृष्टिकोण विस्तृत होकर समदर्शी और सर्वधर्म समन्वयकारी हो गया था।
१. प्रका० मज्झाय पद संग्रह में, भीमसी माणेक, बम्बई ।