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________________ १५६ , परिचय-रयंट - संतोचित वाणी में कवि जीव की मूढता का यथार्थदर्शन कराता हुआ कहता है "मेरी मेरी करत वाउरे, फिरे जीउ अकुलाय । पलक एक में बहुरि न देखे, जल-बुद की न्याय ।। प्यारे काहे कू ललचाय ॥ कोटि विकल्प व्याधि की वेदन, लही शुद्ध लपटाय । ज्ञान-कुसुम की सेज न पाई, रहे लघाय अघाय ॥ प्यारे काहे कू ललचाय ॥" सिद्धों और संतों की योग और साधना पद्धति का प्रभाव भी कवि पर स्पष्ट लक्षित होता है। परन्तु विनय विजयजी में भक्ति और वैराग्य का स्वर ऊँचा है । प्रभु का प्रेम पाने के लिए कवि जोगी बनना पसंद करता हे । निविपय की मुद्रा, मन की माला, ज्ञान-ध्यान की लाठी, प्रभुगुण की भभूत, गील-संतोप की कंथा, आदि धारण कर विषयों की धूणी जलाना चाहता है "जोगी ऐसा होय फरु ।। परम पुरुष सूप्रीत करु, और से प्रीत हरु ॥१॥ निविपय की मुद्रा पहरु, माला फिराऊ प्रभुगुनकी ॥२॥ शील संतोष की कंथा पहरु, विषय जलाऊ घूणी।। पांचू चौर पैर की पकरूं, तो दिल में न होय चोरी हूणी ॥३॥" विनयविजय जी ने उपाध्याय यशोविजय जी के माथ काशी में संस्कृत, न्याय तथा दर्शन के साथ संगीत का भी अपूर्व ज्ञान प्राप्त किया था। उनका पद साहित्य विभिन्न राग-रागिनियों में निबद्ध है । कवि की दृष्टि बड़ी विशाल और अन्तर्मुखी रही है । विनयविजय जी की यह 'विनय विलास' कृति भापा, गैली और भाव की दृष्टि से एक उत्तम काव्य कृति है। श्रीमद् देवचन्द्र : ( सं० १७४६ - १८१२) । महान् अध्यात्मत तत्ववेता, योगी तथा जिन-प्रतिभा के अथाग प्रेमी श्रीमद् देवचन्द्र का जन्म वि० सं० १७४६ में बीकानेर के निकटवर्ती ग्राम 'चंग' में हा था। १ लूणीया तुलसीदासजी की पत्नी धनवाई की कोख से इनका जन्म हुआ था। युगप्रधान जिनचंदमूरि की परम्परा के पं० दीपचन्द के ये शिप्य थे । २ १ जैन गूर्जर साहित्य रत्नो, भाग १, सूरत पृ० ३३१ २ जैन गूर्जर कविओ, भाग ३, खण्ड २, पृ० १४१७
SR No.010190
Book TitleGurjar Jain Kavio ki Hindi Sahitya ko Den
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHariprasad G Shastri
PublisherJawahar Pustakalaya Mathura
Publication Year1976
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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