________________
जैन गुर्जर कवियों की हिन्दी कविता
१५७
इस महान् आध्यात्मिक एवं तत्वज्ञानी कवि के सम्बन्ध में कवियण का लिखा 'देवविलास रास' प्राप्त हुआ है जिससे कवि के विपय में पूरी जानकारी मिलती है ।१
उत्तमविजय जी कृत 'श्री जिनविजय निर्माण राम' तथा पद्मविजय जी कृत 'श्री उत्तमविजय निर्वाण रास' आदि गुजराती रास भी प्राप्त है जिनसे श्रीमद् देवचन्द्र जी से इतिवृत्त पर अच्छा प्रकाश पड़ता है । २
___ इनका जन्म नाम देवचन्द था। १० वर्ष की आयु मे सम्वत् १७५६. में खरतरगच्छीय वाचक राजसागर जी से इन्हें दीक्षा दिलाई गई। दीक्षित नाम "राजविमल' रखा गया, पर यह नाम अधिक प्रसिद्ध मे नहीं आया।
इन्होंने वलोडा,गांव के रम्य वेणातट भूमि-ग्रह में सरस्वती की आराधना कर दीक्षा गुरु राजसागर से शास्त्राभ्यास आरम्भ किया। कुछ ही समय में ये व्युत्तन्न हो गये । पडावश्क सूत्र, नैपधादि, पंचकाव्य नाटक, ज्योतिप, कोष, कीमुदी, महाभाप्यादि व्याकरण ग्रंथ, पिंगल, स्वरोदय; तत्वार्थसूत्र, आवश्यक ब्रहवृत्ति, श्री हरिभद्रसरि, हेमचन्द्राचार्य और यगोविजय जी के ग्रंथ, छकर्मग्रंथ आदि अनेक ग्रंथों एवं शास्त्रों का अध्ययन किया ।, द्रव्यानुयोग में इनकी विशेष रुचि थी। १६ वर्ष की अल्पायु में ही इन्होने सर्वप्रथम 'जानार्णव' का राजस्थानी पद्यानुवाद 'ध्यान-चतुष्पदिकां' के नाम से किया। इसकी प्रशस्ति मे आपने लिग्वा है
"अध्यात्म श्रद्धा न धारी, जिहां बसे नरनारी जी । पर मिथ्या मत ना परिहारी, स्वपर विवेचन कारी जी ।। ६ ।। निजगुण चरचा तिहां थी करता, मन अनुभव में बरता जी। स्याद्वाद निज गुण अनुसरताँ, नित अधिको सुख धरता जी ॥१०॥"
यह ग्रेथ सं० १७६६ में मुलतान में पूर्ण हुआ। तदुपरांत सम्वन् १९६७ में बीकानेर आकर हिदन्दी गंथ 'द्रव्य प्रकाग' की रचना की। स० १७७६ मे भरोट में 'आगमसार' नामक जैन तत्त्व के महत्त्वपूर्ण गद्यग्रौंथ की रचना की। • सम्वत् १७७७ में इनका विहार गुजरात की ओर हुआ । सर्व प्रथम गुजरात में जैन धर्म का केन्द्र और समृद्धिशाली, पाटण नगरी मे इनका आगमन हुआ । तदनन्तर देवचंदजी सर्वत्र गुजरात में विचरण करते रहे अतः इनकी पिछली रचनाओं मे गुजराती की ही प्रधानता है। अब ये जीवनपर्यन्त गुजरात के विविध नगर अहमदाबाद, खंभात, मूरत, पालीताना, नवानगर, भावनगर, लींबडी, धांगध्रा आदि मे विहार करते रहे। ? जैन गूर्जर कविओ, भाग २, पृ० ४७३ २ श्रीमद् देवचंद्र भाग १, अध्यात्म ज्ञान मण्डल, पादरा, पृ० ६
...
.
.
...
......