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बालोचना-खंड
ब्रह्मा कुछ भी कह लो। मृतिका पिण्ड से अनेक प्रकार के नाम रूप पात्र बनते हैं। उसी प्रकार अखण्ड तत्व में अनेक भेदों की कल्पना या आरोपण किया जा सकता है।
स्नेक संभव नामों का प्रयोग कर लेने के उपरांत दोनों ही ब्रहम की अनन्तता और अनिर्वचनीयता स्वीकार कर लेते हैं। इस स्थिति पर उसे मात्र अनुभवगम्य मानकर, अपनी वाणी की असमर्थता स्पष्ट भाव से प्रकट करते हुए उसे ने "गूगे का गुड" कह दिया तो दूसरे ने "तेरो वचन अगोचर ल्प" बताकर "कहन सुनन को का नहीं प्यारे" कह कह है ।२
यह अनुभवैकगम्य; अनन्त और अनिर्वचनीय ब्रहम ही जैन तथा अजैन संतों का उपास्य है । इसकी साधना के लिए किसी बाह्य विधि-विधान या शास्त्र-प्रमाण की आवश्यकता नहीं रहती । इस साधना मार्ग में प्रवृत्त होने के लिए चित्त की शुद्धि, मन और इन्द्रियों का संयम तथा सांसारिक प्रपंचों से ‘अनासक्त होने की आवश्यकता है। इसके लिये माया अथवा अविघा के भ्रम-जाल को छिन्न भिन्न करना होता है और यह कार्य इतना सरल नहीं। यही कारण है कि जैन और अर्जन संतों ने माया को चाण्डालिनी, डोमिनी सांपनि, डाकिन और ठगिनी बताया है। इसके प्रभाव से वह मा, विष्णु, महेश, नारद, अपी-महपि, आदि भी नहीं बचे है। माया ने कितने ही मुनिवरों, पीरों, वेदान्ती-बाह मणों एवं गाक्तों का शिकार किया है। इस माया ने सम्पूर्ण विश्व को अपने पाग में बांध रखा है।३ जैन संतों में आनन्दघन, यगोविजय, विनयविजय, ज्ञानानन्द, जिनहर्प समयसुन्दर आदि ने माया का वर्णन इसी रूप में किया है। आनन्दघन का माया-कथन तो कबीर से साम्य ही नहीं रखता अपितु सात पंक्तियाँ तो एक शब्दों के हेरफेर के साथ एक जैनी ही है। रहस्वादी धारा :
वस्तुतः अव्यात्म की चरम सीमा ही रहस्यवाद की जननी है। आत्मापरमात्मा के प्रणय की भावात्मक अभिव्यक्ति को ही रहस्यवाद की संज्ञा दी गई है । रहस्यवाद की अविच्छिन्न परम्परा का मूल तथा प्राचीन त्रोत उपनिषदों का
१. हजारी प्रसाद द्विवेदी, कबीर, पृ० १२६ । २. आनंदघन पद मंग्रह, मद २१, पृ० ५३-५६ । । ३. (अ) श्यामसुन्दर दान संपा० कबीर धावली, पद १८७, पृ० १५१ ।
(आ) आनंदघन पद संग्रह, पद ६६, ४५१-८८६ ।