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बालोच्य कवितां का सामूहिक परिवेश
वाला नास्तिक । इस आधार पर जैन और बौद्ध दर्शन भी आस्तिक हैं। जैन दर्शन आत्मा, परमात्मा, मुक्ति और परलोक मान्यता में आस्था रखता है । वौद्ध दर्शन में भी परलोक और कैवल्य निर्वाण की स्थिर मान्यता है। इस दृष्टि से मान्न चार्वाक दर्शन ही नास्तिक दर्शन है शेप सभी आस्तिक दर्शनों की कोटि में आ जाते हैं ।
जैन दर्शन की विशिष्टता उसकी आत्मा और जगत् के सम्बन्ध की मौलिक विचारधारा में है । आचार और विचार मूलक दृष्टि इसकी आधारशिला है । आचार अहिंसा मूलक है और विचार अनेकान्त दृष्टि पर आधारित होने पर भी मूल दृष्टि एक ही रही है । विचार क्षेत्र में अनेकान्त भी अहिंसा नामधारी वन जाता है।
संक्षेप में जैन दर्शन का परिचय इस प्रकार दिया जा सकता है । सृष्टि के मुल में मुख्य दो तत्व हैं-जीव और अजीव । इसके पारस्परिक सम्पर्क द्वारा कुछ वन्धनों या शक्तियों का निर्माण होता है, जिससे जीव को विभिन्न दशाओं का अनुभव होता है। इस सम्पर्क की धारा को रोककर, उससे उत्पन्न वन्धनों को विनष्ट कर दिया जाय तो जीव अपनी मुक्त अवस्था को प्राप्त हो जाता है। जैन दर्शन के यही सात तत्व हैं-जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष । जीव, अजीव तत्वों का विवेचन जैन तत्वज्ञान का विपय है। आलव और वंव की व्याख्या कर्म सिद्धांत में आती है । संवर और निर्जरा जैन धर्म के आकार शास्त्रगत विपय है और मोक्ष जैन धर्म की दृष्टि से जीवन की सर्वोपरि अवस्था है, जिसकी प्राप्ति ही धार्मिक क्रिया और आचरण की अंतिम परिणित है। जैन दर्शन की मान्यता :
समस्त विश्व जड़ और चेतन रूप दो सत्ताओं में विभक्त है। यह अनादि और अनन्त है । जड़-चेतन की इस सम्पूर्ण सत्ता को छह द्रव्यों में विभाजित किया गया है । छह द्रव्यों के नाम हैं-जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल । प्रत्येक द्रव्य में परिवर्तन होता रहता है। यह परिवर्तन अवस्थाओं की दृष्टि से होता, मूल द्रव्य की दृष्टि से वह सर्वथा नित्य है। प्रत्येक द्रव्य स्वतन्त्र एवं शक्ति युक्त है। वह अपना अस्तित्व नहीं छोड़ता । मिट्टी से घर बनता है, जब वह फूटता है तो खण्ड-गट हो जाता है । मिट्टी का पिण्ड रूप घट रूप में परिवर्तित हो जाता है, पर दोनों ही अवस्याओं में मिट्टी द्रव्य उपस्थित है। घट के फूट जाने पर भी मिट्टी द्रव्य ही है । अतः प्रत्येक द्रव्य में अवस्थाओं का परिवर्तन होता रहता है, द्रव्य स्वयं नित्य है।
१. पालीमोग्लोनिविः यस्य न नास्तिक: दिवपरीतो नास्तिकः ।
पाणिनी राम, "मन्निनास्तिदिष्टं मति:" की याया। ३. स्याई गम-रग नामदुमास्वागी-मध्याय ५।