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________________ जैन गुर्जर कवियों की हिन्दी कविता रखते हैं । ये साधु नग्न रहते हैं । दिन में एक बार खड़े रहकर हाथ में ही भोजन करते हैं। सदा ध्यान मग्न रहते हैं । यह साधुचर्या दिगम्बरों में चिरकाल से चली आ रही है । परन्तु देशकाल जनित आपत्ति तथा व्यक्तिगत शैथिल्य के कारण मुनियों में विवाद आरम्भ हा, इसमें मुनियों के निवास-स्थान का भी एक प्रपन था। इसके बीज तो "द्वादशवीय अकाल" से ही थे, पर धीरे-धीरे इसने व्यापक रूप धारण कर लिया । वनवास छोड़ मुनि मन्दिरों और नगरों में रहने लगे। नवमी शती के जनाचार्य गुणभद्र ने इस दशा पर क्षोभ प्रकट करते हुए लिखा-"भयभीत मृगादि रात्रि में जैसे नगरों के समीप आ वसते हैं, उसी प्रकार मुनि भी कलिकाल के प्रभाव से • वन छोड़ नगरों में वसते हैं, यह दुःख की बात है।' इसी शिथिलतावश चैत्यवास का आरम्भ हुआ । दिगम्बर साधुओं में भी इस प्रवृत्ति का प्रभाव अवश्य लक्षित होता है । दिगम्बर सम्प्रदाय में भट्टारक पद इसी प्रवृत्ति का विकसित रूप है। सम्प्रदाय भेद सामान्य बातों को लेकर हो जाते हैं। दिगम्बर सम्प्रदाय के मूल संघ और काष्ठा संघ के अलग होने का मूल कारण यही है कि मूल संघ के साधुजीवरक्षा के लिए मयूर की पिच्छि रखते हैं और काण्ठासंघ के साधु गोपुच्छ के वालों की “पिच्छि रखते हैं । मुख्य उद्देश्य तो पिच्छि के कोमल होने का था, ताकि जीवों की विराधना न हो । परन्तु मोर पिच्छि के दुराग्रह के कारण काष्टासंघ अलग हो गया । इसके पश्चात् पिच्छि मान के त्याग को लेकर एक संघ और बना, जिसे नि:पिच्छि कहा गया। इसे माधुर संघ भी कहते हैं। इसी प्रकार श्वेताम्बर सम्प्रदाय में भी छोटे-छोटे मतभेदों को लेकर खरतर गच्छ, तपागच्छ, आँचलिक, पार्श्वचन्द्र गच्छ, उपकेशगच्छ आदि अनेक गच्छादिकों की उत्पत्ति हुई है। जैन धर्म की दार्शनिक-आध्यात्मिक चेतना पर दृष्टिपात : भारतीय दर्शन के मुख्यतः दो भेद हैं-एक आस्तिक दर्शन और दूसरा नास्तिक दर्शन । वेद को प्रमाण मानने वाले आस्तिक हैं और वेद को प्रमाण न मानने वाले नास्तिक दर्शन । इस आधार पर आस्तिक दर्शन छह माने गये हैं-सांख्य, योग, न्याय, वैशेपिक मीमांसा और वेदांत । जैन, वौद्ध और चार्वाक की गणना नास्तिक दर्शनों में होती है। इस विभाजन का मुख्य आधार-"नास्तिको वेद निन्दकः" अर्थात् वेदनिन्दक सम्प्रदाय नास्तिक हैं। काशिकाकार ने अपने पाणिनि सन्न में कहा है-"परलोक में विश्वास रखने वाला आस्तिक है और इससे विपरीत मान्यता १. इतस्ततश्च नस्यन्तो विभावर्या यथा मृगाः । '. बनाद् विशन्त्युपग्रामं कली कप्टं तपस्विनः ॥१९७॥-आत्मानु०
SR No.010190
Book TitleGurjar Jain Kavio ki Hindi Sahitya ko Den
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHariprasad G Shastri
PublisherJawahar Pustakalaya Mathura
Publication Year1976
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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