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जन गुर्जर कवियों की हिन्दी कविता
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। जैन दर्शन के अनेकांत और स्यावाद शब्द वस्तु की इसी अनेक अवस्थात्मक किन्तु निश्चित स्थिति का प्ररूपण करते हैं।
___ जैन मतानुसार प्रत्येक आत्मा में परमात्मा बनने की क्षमता है । “जयतिकर्म शनून इति जिनः "५ के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति अपने कर्म शत्रुओं को परास्त कर, . अपना शुद्ध आत्म तत्व प्राप्त कर "जिन" बन सकता है। प्रत्येक व्यक्ति में यह मामर्थ्य है । आत्मा को स्वयं ही कर्म वन्धनों से अपने पुरुपार्थ से मुक्त होना पड़ता है । संसार की कोई भी शक्ति उसे मुक्त नहीं करा सकती। स्वयं तीर्थकर भी मानव से महामानव वनते हैं । न कोई कर्म आत्मा को बाँध ही सकता है और न ही मुक्न कर सकता है, क्योंकि आत्मा और कर्म का कोई मेल नहीं। आत्मा चैतन रूप है और कर्म पौद्गलिक । दोनों के गुण और कार्य व्यापार में साम्य नहीं । फिर भी आत्मा कर्मों द्वारा ही वन्धन युक्त है । संसारी जीव बन्धन से अपनी आत्मा को गिरी हुई इसलिए अनुभव करते हैं कि अनादिकाल से जीव और कर्म ऐसे मिल गये हैं कि एक से लगते हैं, और हम मानने लगते हैं कि कर्म ही जीव को दुःखी करते हैं, वस्तु-स्थिति ऐसी नहीं । आत्मा ही अपने को कर्म बन्धन में जकड़ी हुई मानकर अपनी मात्मशक्ति खो बैठती है और अनेक भवों में भटकती रहती है। यह स्थिति तो ऐसी ही है जैसे कोई व्यक्ति सड़क के पत्थर को सिर पर उठा ले और कहे कि यह पत्थर मुझे दुःख दे रहा है । वस्तुस्थिति स्पष्ट है मानव जिस दिन कर्म का कल्पित या आरोपित जुआ उतार फेंकता है, वह उसी क्षण परमात्म रूप प्राप्त करता है।
जैन दर्शन के अनुसार ईश्वर सृष्टि कर्ता नहीं है । संसार का प्रत्येक पदार्थ अपने गुण स्वभाव वण अनेक अवस्थाओं में स्वयं रूपाचित होते हुए भी अन्ततः नित्य है। उसे अन्यथा करने की सामर्थ्य किसी में नहीं। ईश्वर को सृष्टि कर्तृत्व नहीं दिया गया है अतः उमकी सर्वशक्तिमत्ता अबाधित रही है । जैन धर्म और दर्शन की कुछ विशेषताएं :
(१) परमात्मपद प्राप्ति ही मानव का उच्चतम और अंतिम लक्ष्य है। (२) जैन दर्शन व्यक्ति-स्वातन्त्र्य को स्वीकार कर स्वावलम्विनी वृत्ति को
प्रश्रय देता है। (३) सम्पूर्ण प्राणीमात्र का कल्याण करना-जैन धर्म है। (४) जैन धर्म की विशेषता--चारों पुरुषार्थों की सिद्धि में है। इस सिद्धि
का उपाय मानव के हाथ में है।
१. अध्यात्म पदावली, राजकुमार जैन, पृ० ३८