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जैन गुर्जर कवियों की हिन्दी कविता
में खूब रस लेता रहा । संसार की टीका वैराग्य पोपक थी । वैराग्य को ज्ञानमूलक बनाकर एक मात्र मोक्ष की प्राप्ति करने के लिये संसार- प्रपंच को त्याग कर भक्ति और आराधना का आदेश दिया जाता था । यह उपदेश मात्र पुस्तकीय नहीं था - गुरु परम्परा और अनुभूति का था । इनमें निरूपित जीवन चित्र "आँखों के देखे" थे " कागज के लिखे " नहीं । अतः साधु या सन्यासी बनने की प्रवल भावना समग्र समाज में बनी रही । धीरे धीरे यह भावना मन्द होती चली और युग धर्म के अनुरूप बनने की नई भावना का विकास हुआ ।
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( ५ ) ऐतिहासिक तथ्यों के निर्वाह की प्रवृत्ति :
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जैन साहित्य में उपलव्ध ऐतिहासिक कृतियों से तत्कालीन जैन कवियों का इतिहास स्पष्ट होता है । इनमें अनेक ऐतिहासिक वर्णन भी उपलब्ध हैं । उदाहरणार्थं "सत्यासीमा दुष्काल वर्णन छत्तीसी' में कवि समयसुन्दर ने अपने जीवनकाल में आंखों देखे, दुष्काल का सजीव वर्णन किया है । इन कवियों ने अपनी कृतियों के आरम्भ या अन्त में गुरुपरम्परा, रचनाकाल, तत्कालीन राजा आदि के नाम बुद्धिकौशल से सूचित किये हैं । तत्कालीन आचार-विचार, समाज, धर्म, राजनीति की प्रामाणिक जानकारी में यह परम्परा सहयोग देती है ।
(६) कथारूढ़ियों और परम्पराओं के निर्वाह की प्रवृति
इन कृतियों में उपलब्ध कथाएँ अपनी ही परम्परा और रूढ़ियों को लेकर कही गई हैं । अनेक कवियों ने एक ही विषय को लेकर अनेक रचनाएँ की । ऋषभदेव, नेमिनाथ, स्थूलभद्र, नलदमयंती, रामसीता, द्रौपदी, भरतवाहुबलि आदि विषयों पर समान रूप से कई कवियों ने अपनी-अपनी रचनाएं प्रस्तुत की हैं । कथाओं और उनकी रूढ़ियों में परम्परा का निर्वाह होते हुए भी, पात्र, कथानक, वर्णन पद्धति तथा उद्देश्य में मौलिकता के दर्शन अवश्य होते हैं ।
(७) शांत रस को प्रमुखता देने की प्रवृत्ति :
१ – सामान्यत: हिन्दू जनता जैन धर्म को विरोधी और नास्तिक समझती रही अतः इस साहित्य के असाम्प्रदायिक ग्रन्थ भी युगों से उपेक्षित रहे ।
२– परम्परा अनुसार अथवा विगत कटु अनुभवों के कारण छापे का आविकार हो जाने पर भी जैन अपने ग्रन्थों के प्रकाशन को धर्मविरुद्ध समझते हैं ।
३ - गुजरात जैन साहित्य के निर्माण का विशेष केन्द्र रहा है । यहां के कवियों की कृतियों का संपादन-संग्रह गुजराती विद्वानों द्वारा ही हुआ है । गुज