________________
आलोच्य कविता का सामूहिक परिवेश
।
राती को स्वतन्त्र और अलग भाषा स्वीकार कर लेने के कारण विद्वान् इन कृतियों को गुजराती भाषा की ही समझते रहे । अतः बहुत से हिन्दी ग्रन्थ माज तक हिन्दीभापियों तक नहीं पहुंच पाये हैं । जैन गूर्जर साहित्यकार और हिन्दी :.
गुजरात जैन धर्म, संस्कृति एवं साहित्य का प्रमुख केन्द्र रहा है। इस प्रवेश में जैन धर्म का अस्तित्व तो इतिहासातीत काल से मिलता है । प्रथम तीर्थंकर ऋपमदेव, के प्रधान गणधर पुहरीक ने शत्रुन्जय पर्वत (गुजराज) से निर्वाण लाभ लिया था ।' २२ वें तीर्थंकर नेमिनाथ (कृष्ण के पैतृकमाई) का तो यह प्रधान विहार क्षेत्र था । जूनागढ़ के महाराजा उग्रसेन की राजकुमारी राजुल से नेमिनाथ के विवाह की तैयारी करने, भौतिक देह और संसारी भोगों से विरत हो गिरनार पर्वत पर समाधि लेने तया तीर्थकर मुनिसुव्रत के आश्रम का भृगुकच्छ में होने के उल्लेख मिलते हैं । तेरहवीं शती में वनराज चावड़ा, सोलंकी राजा शिलादित्य और वस्तुपाल तथा तेजपाल जैसे मंत्रियों ने जैन धर्म और साहित्य को पर्याप्त प्रोत्साहन दिया । जैन धर्म का यह उत्कर्ष काल था। मुसलमान बादशाह भी इस धर्म के प्रति काफी सहिष्णु रहे। सम्राट अकबर को प्रतिबोध देने गये जैनाचार्य हीरविजयसूरि, जिनचन्द्र तथा उपाध्याय भानुचन्द्र, गुजरात से ही नागरा गये थे।
श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही सम्प्रदायों को साथ-साथ फलने-फूलने का सुअवसर देने का श्रेय गुजरात को ही है। गुजरात, श्वेताश्वरों का तो प्रधान केन्द्र रहा ही है, किन्तु ईडर, नागौर, सूरत, वारडोली, घोघा आदि कई स्थानों में दिगम्बर भट्टारकों की भी गदियाँ प्रस्थापित हुई थीं।
इस प्रान्त में जैन धर्म के चिरस्थायी प्रभाव के फलस्वरूप ही जैन साधुओं, विद्वानों एवं गृहस्थ कवियों ने इस प्रान्त को सांस्कृतिक एवं साहित्यिक अमूल्य भेटों से अलंकृत किया।
आधुनिक भारतीय मार्य भापाओं में गुजराती और हिन्दी भापा और साहित्य की इन कवियों के हाथों महती सेवा हुई । इन भापाओं के विकास क्रम के अध्ययन के लिए यही जैन ग्रन्य आज आधारमत हैं। इस भाषा-अध्ययन से यह स्पष्ट हो जाता है कि.हिन्दी और गुजराती का उद्भव एक ही स्रोत से हुआ है। पं० नाथूराम प्रेमी जी के इस अभिप्राय से भी यह बात स्पष्ट है-"ऐसा जान पड़ता है कि प्राकृत का जब अपभ्रश होना आरम हुआ, और फिर उसमें भी विशेष परिवर्तन होने लगा,
१. जैन सिद्धांत भास्कर, प्रो. ज्योतिप्रसाद जैन का लेग, पृ० ४८, भाग २०, किरण १, जून १६५३ २. महाकालीन गुजरातो साहित्य, मुंशो, पृ० ७२