________________
जैन गुर्जर कवियों की हिन्दी कविता
तब उसका एक रूप गुजराती के साँचे में ढलने लगा और एक हिन्दी के सांचे में । यही कारण है जो हम| ई० १६ वीं शताब्दी से जितने ही पहले की हिन्दी और गजराती देखते हैं, दोनों में उतना ही सादृश्य दिखलाई पड़ता है। यहाँ तक कि १३ वीं १४ वीं शताब्दी की हिन्दी और गुजराती में एकता का भ्रम होने लगता है ।' इसी भापा-साम्य के कारण वि० १७ वीं शताब्दी के कवि मालदेव के भोजप्रबंध और पुरन्दर कुमार चउपई, जो वास्तव में हिन्दी ग्रन्थ हैं, गुजराती ग्रन्थ माने जाते रहे ।२.
निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि १६ वीं-१७.वीं शदी तक भारत के पश्चिमी भू भाग में बसने वाले जैन कवि अपम्रश मिश्रित प्रायः एक-सी भापा का प्रयोग करते रहे। हां, प्रदेश विशेष की भाषा का इन पर प्रभाव अवश्य था। हिन्दी, गुजराती और राजस्थानी का विकास शौरसेनी के नागर अपभ्रंश से हुआ । यही धारणा है कि १६ वीं-१७ वीं शती तक इन तीनों भाषाओं में साधारण प्रान्तीय भेद को छोड़ विशेष अन्तर नहीं दिखाता । श्री मो० द० देसाई ने इस भाषा को प्राचीन हिन्दी और प्राचीन गुजराती कहा है -"विक्रम की सातवीं से ग्यारहवीं शती तक अपभ्रंश की प्रधानता रही, फिर वह जूनी हिन्दी और जूनी गुजराती में परिणत हो गई । गुजराती के प्रसिद्ध वैयाकरणी श्री कमलाशंकर प्राणशंकर त्रिवेदी ने गुजराती को हिन्दी का पुराना प्रान्तिक रूप मानते हुए कहा है - "स्वरूप में गुजराती हिन्दी की अपेक्षा प्राचीन है । वह उस भाषा का प्रान्तिक रूप है । चालुक्य राजपूत इसे काठियावाड़ के प्रायद्वीप में ले गये और वहाँ दूसरी हिन्दी बोलियों से अलग पड़ जाने से यह धीरे-धीरे स्वतन्त्र भाषा बनी। इस प्रकार हिन्दी में जो पुराने रूप लुप्त हो गये हैं वे भी इस में कायम हैं।"५
श्री मोतीलाल मेनारिया ने शारंगधर, असाहत, श्रीधर, शालिभद्रसूरि, विजयसेनसूरि, विनय चन्द्रसूरि, आदि गुजराती कवियों की भी गणना राजस्थानी कवियों में । की है। इन्हीं कवियों और उनकी कृतियों की गणना हिन्दी साहित्य के इतिहासकारों ने हिन्दी में की है और उनकी भाषा को प्राचीन हिन्दी अथवा अपभ्रश कहा है। मिश्रवन्धुओं ने अपने ग्रन्थ "मिश्रवन्धु विनोद" भाग १ में धर्मसूरि, विजयसेनमूरि, विनयचन्द्रसरि, जिनपद्मसूरि, और सोम सुन्दरसरि आदि जैन गूर्जर कवियों का उल्लेख किया है। १. हिन्दी जैन साहित्य का इतिहास, सप्तम् हि० सा० स० कार्य विवरण, भाग-२, पृ० ३ २. वही, पृ. ४४-४५ ३. हिन्दी भाषा का इतिहास, धीरेन्द्र वर्मा ४. जैन गुर्जर कवियों, भाग, १, पृ० २१ ५. गुजराती भाषानुं वहद् व्याकरण, प्रथम संस्करण, प० २१ ६. राजस्थानी भाषा और साहित्य, मोतीलाल मेनारिया