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आलोच्य कविता का सामाहक परिवेश
उसके पश्चात् पुनः अपराहन प्रारंभ हो जाता है। इस संबंध में एस० एम० एडवर्ड ने लिखा है
" सोलहवीं और सत्रहवीं की शासनव्यवस्था और सिद्धान्त-निर्माण मुख्यरूप से अकवर के दूरदर्शी बुद्घमान् मस्तिष्क का ही परिणाम था।" १
उत्तर भारत में मुगलों की सत्ता को सुदृढ बनाने के लिए अकबर ने अनेक प्रयत्न किये । वह मेवाड़ को अपनी अधीनता में पूर्णतया नहीं ला सका। राणा प्रताप अपनी स्वतंत्रता के लिए निरन्तर मुगल सत्ता से लोहा लेते रहे । बीकानेर और मेवाड़ की दो अग्निदाहक शक्तियां अपने आत्मगौरव और सम्मान की रक्षा के लिए राजस्थान में चेतना का शंखनाद करती हुई अकबर जैसे प्रतापी मुगल को भी चकित और भ्रमित करती रही।
जहाँगीर और शाहजहाँ के समय में अकबर द्वारा प्रस्थापित राष्ट्रीय रूप कायम रहा अतः शान्ति और व्यवस्था बनी रही। औरंगजेब शाहजहाँ के जीवन काल में ही अपने भाइयों को गृहयुद्ध में परास्त कर संवत् १७१५ में मुगल साम्राज्य का अधिपति वन बैठा। उसने अकवर की नीति का परित्याग कर भारत को इस्लामी राज्य बनाने का प्रयत्न शुरू किया। स्नेह, सहानुभूति और सहयोग पर प्रस्थापित मुगल साम्राज्य की नीव पर औरंगजेब ने कुठाराघात किया। उसने हिन्दुओं पर जजिया कर लगाया। हिन्दू मन्दिरों को तोड़ने के आदेश दिये, जिसके कारण काशी में विश्वनाथ, गुजरात में सोमनाथ और मथुरा में केशवराय के मन्दिरों को ध्वस्त किया गया । हिन्दू और मुसलमानों में भेद नीति का व्यवहार किया गया। इस विरोधी नीति के परिणाम स्वरूप अनेक विद्रोह संघर्ष चलते रहे और मुगल साम्राज्य अन्दर ही अन्दर खोखला होने लगा।
१८वीं शती के उत्तरार्ध में मुगल साम्राज्य दिनोदिन अत्यधिक अव्यविस्थत हो हो गया। दक्षिण में मराठों की शक्ति बढ़ रही थी। राजस्थान के राजपूत नरेशों का घोर पतन हो रहा था। वे ऐश्वर्य-विलास में डूवे हुए थे अपने व्यक्तिगत स्वार्थो, लाभों, एवं सुखों को छोड़कर मराठों का सामना करने में असमर्थ रहे । यह मराठों के अभ्युदय का युग था । देश के अन्यान्य क्षेत्रों में विशेषत: राजस्थान और गुजरात में भी गृहयुद्ध, सर्वत्र भयंकर मार काट, घृणित-पड्यंत्रों एवं अविश्रसनीय विश्वास घातों का दौरदौरा चल रहा था । औरंगजेव के समस्त उत्तराधिकारी निर्वल निकले। वे अन्यान्य देशी-विदेशी शक्तियां के हाथों की कठपुतली बने रहे। गुजरात में भी औरंगजेब से लेकर १९वीं शती के प्रयम चरण तक अशांति का वातावरण बना रहा। 1 Mugal Rule in India. by S. M. Edwards. p. 159