SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 31
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भूमिका खण्ड २७ । __ प्रस्तुत प्रवन्ध में १७वीं एवं १८वीं शती के ८१ जन-गुर्जर कवियों तथा उनकी लगभग २७४ हिन्दी कृतियों का सामान्य परिचय देते हुए उनका समग्र रूप से विश्लेषण किया गया है। इन कवियों तथा कृतियों के साहित्योचित मूल्यांकन का भी यह मेरा सर्वप्रथम एवं मौलिक प्रयास है। प्रस्तुत प्रवन्ध में मैंने न केवल अनेक कवियों तथा उनकी कई कृतियों को प्रकाश में लाने का प्रयत्न किया है अपितु ज्ञात तथ्यों का पुनरीक्षण व पुनराख्यान करने तथा साहित्य की टूटी हुई कड़ियों को जोड़ने का भी भरसक प्रयत्न किया है । . यों भी हिन्दी को राष्ट्रभाषा मान लेने पर, विभिन्न प्रदेशों में उसके विखरे सूत्रों को संकलित करके हिन्दी भाषा-साहित्य की समग्रता का बोध कराने वाले ये क्षेत्रीय अनुसंघानात्मक प्रयास, सम्प्रति विघटनकारी प्रवृत्तियों के बीच, भारत की राष्ट्रीय सांस्कृतिक एकता को बनाये रखने वाली शक्तियों के संकल्प को न केवल दृढ़ करेगे बल्कि अपना भावात्मक योगदान, भी करेगे। ६. प्रकरण विभाजन और प्रकरण-संक्षिप्ति । . पूरा प्रवन्ध तीन खण्डों और सात प्रकरणों में विभाजित है । तीन खण्ड हैं भूमिका खण्ड; परिचय खण्ड और आलोचना खण्ड । प्रथम भूमिका खण्ड के "प्रवेश" शीर्षक के अन्तर्गत विषय चयन, उसकी प्रेरणा, नामकरण, महत्व, मर्यादा तथा विषय का स्पष्टीकरण अन्यान्य दृष्टियों से किया गया है । अन्त में प्राप्त मामग्री तथा इस 'प्रवन्ध द्वारा मौलिक योगदान का निर्देश भी कर दिया गया है । . प्रथम प्रकरण में आलोच्य-युगीन कविता का सामूहिक परिवेश और पृष्ठभूमि पर एक विहंगम दृष्टि से विचार प्रस्तुत है। .. परिचय खण्ड के प्रकरण २ और ३ में १७वीं एवं १८वीं शती के जैन-गुर्जर कवियों और उनकी कृतियों का परिचय दिया गया है। इनमें से अधिकांश कवियों -का सम्बन्ध गुजरात और राजस्थान दोनों ही प्रांतों से रहा है। आलोचना खण्ड के प्रकरण ४, ५, ६ और ७ में समग्रदृष्टि से जैन-गुर्जर कवियों की हिन्दी कविता का विस्तार से परीक्षण समाविष्ट है । प्रथम इनके भावपक्ष का फिर इनके कलापक्ष में भापा तथा विविध काव्यरूपों की विस्तृत आलोचना है। हिन्दी को अपनी वाणी का माध्यम बनाकर इन जैन-गुर्जर सन्त कवियों ने भक्ति, वैराग्य एवं ज्ञान का उपदेश देकर काव्य, इतिहास और धर्म-साधना की जो त्रिवेणी वहाई है-उसमें आज भी हम उनकी शतशत भावोमियों का स्पंदन अनुभव कर सकते है। इनकी भापा सरल एवं प्रवाहपूर्ण थी। इन्होने कई छन्द विविध राग गिरानियों में प्रयुक्त किये थे। ये अलंकारों में मर्यादाशील बने रहे । अलंकारों के
SR No.010190
Book TitleGurjar Jain Kavio ki Hindi Sahitya ko Den
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHariprasad G Shastri
PublisherJawahar Pustakalaya Mathura
Publication Year1976
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy