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परिचय खंड
इसमें ४६ छंद है। इसकी एक प्रति बीकानेर भण्डार में सुरक्षित है । वुद्धसागर द्वारा सतीदास संघवी के माध्यम से साधुकीति को ललकारने का वर्णन भापा और अभिव्यक्ति की दृषि से देखने योग्य है -
"तपले चरचा उठाई, धावक ने बात सुणाई ॥ ८ ॥
मो सरिखो पंडित जोई, नहीं मझिन आगरे कोई, तिणि गर्व इसो मन कोधक बुद्धिसागर अपयग लीघउ ॥ ६ ॥ श्रावक आगे इम बोलई, अन्ह गाथा रम कुण खोलइ। श्रावक कहइ गर्व न कीजइ, पूछी पंडित समझी जइ ॥ १०॥ . संघवी सतीदास कु पूछई, तुम्ह गुरु कोइ इहां छइ। संघवी गाजी नई भावई', साधुकीति छै इभ दाखई ॥११॥" साधुकीर्ति तत्व विचार्यों, तत्वारथ मांहि संमायो ।
पौषध छइ प्रकार, वूझयो नहीं सही गमार ॥१३॥" उन उद्धरण से ज्ञात होता है कि कनक सोम की भापा गुजराती से यत्किंचित् प्रभाविम है। - कुगल लाभ : ( सं० १६१६ आसपास )
कुसल लाभ राजस्थान के कवि के रूप में प्रख्यात हैं। इस संदर्भ में इनका उल्लेख इस लिए किया जा रहा है कि गुजरात के जैन इतिहासकारों तथा लेखकों ने इन्हें जैन-गूर्जर कवियों के अन्तर्गत परिगणित किया है। १ इनकी कृतियों का अवलोकन करने से भी स्पष्ट हो जाता है कि गुजरात के वीरभगाम, खंभात आदि स्थानों में दीर्घकाल तक निवास करके इन्होंने पर्याप्त काव्य रचनाएं की हैं। ये खरतरगच्छीय अभयदेव उपाध्याय के शिष्य थे। २ इनके संबंध में विशेष जानकारी का अभाव है। राजस्थान और गुजरात के विभिन्न स्थलों में रचित इनकी अनेक रचनाएं प्राप्त हैं। राजस्थानी, गुजराती और हिन्दी तीनों भाषाओं में इनकी कृतियां मिलती हैं -इससे स्पष्ट है कवि का गुजरात से घनिष्ट संबंध रहा है । ये जन्मजात कवि थे । इन्होंने भत्ति शृगार और वीर रस में सफल कविताएं की हैं। उनकी शूगार परक रचना "माधयनलकास" कंदला" है, जिसकी रचना श्रावक हरराज की प्रेरणा से फल्गुन सुदी १३ १ जैन-गूर्जर कविओ, भाग १, पृ० २११-१६ तथा भाग ३ खण्ड १ पृ० ६८१-८७ २ "श्री परतर गच्छि सहि गुरुराय, गुरु श्री अभय धर्म उवझाय ।" । कुशललाभ कृत तेजसार रास, अन्तिम पद्य, जैन गूर्जर कविओ, भा० १, पृ०२१४