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परिचय-चंड
भाषा-शैली की दृष्टि से एक उदाहरण द्रष्टव्य है"में गाया रे ईम जीन चौवीसे गाया । संवत मत्तर पंचावन वरसे, अधिक ऊमंग वढाया। माघ अस्तित तृतिया, कुजवासरे, उद्यम सिद्ध चढाया रे ।५ तप गण गगन विमान दिनकर, श्री राजविजयसूरि राया। शिष्य तेस तसु अन्यय गणिवर, ग्यानरन्न मन भाया रे १६ तस्य अनुचर मुनिहंस कहे ईम, आज अधिक सुख पाया । जीन गुण ज्ञान बोचे गावे, लाम अनन्त उपाया रे ॥॥"
कवि की भाषा बड़ी सरल एवं सादी है। भट्टारक रत्नचंद्र (द्वितीय) : (सं० १७५७ आसपास)
ये भ० अभयचन्द्र की परम्परा में हुए भ० शुभचंद्र के शिष्य थे। म० शुमचंद्र (सं० १७२१-४५) के पश्चात् इन्हें भट्टारक गद्दी पर अभिषिक्त किया गया ।१ इनका सम्बन्ध सूरत एवं पोरबन्दर की गद्दियों से विशेष रहा है। संवत् १७७६ की रचित इनकी एक चौवीसी प्राप्त है।
भ० रत्नचंद्र की चार कृतियों का उल्लेख डॉ. कस्तुरचन्द कासलीवाल जी ने किया है ।२ रत्नचंद्र को इन रचनाओं में उनकी साहित्याभिरुचि एवं हिन्दी-प्रेम के दर्शन होते हैं। उपर्युक्त कृतियों के उपरांत इनके कुछ स्फुट गीत एवं पद भी उपलब्ध हैं।
प्रायः इनकी कृतियां तीर्थकरों की स्तुतिरूप में रची गई है। बावन-गजागीत' कवि को एक ऐतिहासिक कृति है, जिसमें संवत् १७५७ पौष सुदि २ मंगलवार के दिन पूर्ण हुई चूलगिरि की ससंघ यात्रा का वर्णन है। विद्यासागर : ( १८ वीं शती-द्वितीय चरण )
ये भट्टारक अमयचंद्र के शिष्य एवं भ० शुभचंद्र के गुरुभ्राता थे। इनका सम्बन्ध वलात्कारगण एवं सरस्वती गच्छ से था । इनके गुरु तथा गुरुभ्राता शुमचंद्र (द्वितीय) का सम्बन्ध गुजरात से विशेष रहा है, जिसका उल्लेख पिछले पृष्ठों में हो
चुका है। इनकी हिन्दी रचनाओं में गुजराती प्रयोग देखते हुए संभव है ये भी गुजरात ---. में दीर्घकाल. पर्यंत रहे हों। इनके विषय में विशेष जानकारी अनुपलब्ध है। .. १. राजस्थान के जैन संत-व्यक्तित्व एवं कृतित्व, डॉ० कस्तूरचन्द कासलीवाल,
पृ० १६४ । २. वही, पृ० २०६।