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जैन गूर्जर कवियो की हिन्दी कविता
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. डॉ० कस्तूरचंद कासलीवाल जी ने इनकी रचित रचनाओं का उल्लेख किया है ।१ इन कुतियों के उपरांत इनके रचे कुछ पदं भी उपलब्ध है, जो भाव, मापा एवं शैली की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। खेमचन्द्र : (सं० १७६१ आसपास)
__ये तपागच्छ की चन्द्रशाखा के मुक्तिचन्द्र जी के शिष्य थे ।२ नागरदेश में रचित इनकी एक कृति गुणमाला चौपई प्राप्त है। इसकी रचना संवत् १७६१ में हुई थी ।३ इस रचना में गुजराती शब्दों का प्रयोग देखते हुए कवि का गुजरात से दीर्घकालीन सम्बन्ध रहा हो, यह संभव है। श्री कामताप्रसाद जैन ने भी इस बात को स्वीकार किया है।४ _ 'गुणमाला चोपई' की एक प्रति जैन-सिद्धान्त-भवन, आगरा में सुरक्षित है । इसमें गोरखपुर के राजा गजसिंह और गुणमाल की कथा वणित है । आर्य मर्यादा की उत्तम शिक्षा एवं पतिव्रत का आदर्श इस रचना में कवि ने दिखाया है। कथा सरस है और तत्कालीन समाज का सजीव चित्र प्रस्तुत करती है। गुणमाला को उसकी माता आर्य मर्यादा की सीख देती हुई कहती है
"सीषावणि कुंवरी प्रत, दीय रंभा मात । वेटी तूं पर पुरुप सुं, मत करजे बात ॥१॥ भगति करे भरतार की, संग उत्तम रहजे ।
वड़ा रा म्हो बोले रणे, अति विनय वहजे ॥२॥" लावण्य विज गणि : (सं० १७३१ आसपास)
___पं० भानुविजय जी के शिष्य लावण्यविजय ने खंभात में चौबीसी की रचना की। इसकी एक प्रति श्री देवचंद लालभाई भंडार, सूरत से प्राप्त हुई है, जो अधूर्ग है। इनकी अन्य रचनाओं एवं जीवन सम्बन्धी जानकारी का अभी पता नहीं चला है। इम चौवीसी की रचना संवत् १७६१ में खंभात में हुई ।५।।
कवि के इन स्तवनों को देखने मे लगता है कि ये रचनाएँ उत्तम रचनाओ मे स्थान पाने योग्य हैं। कविता की दृष्टि से भी बड़े हो मनोहर, लयबद्ध, भाव-माधुर्य
१. राजस्थान के जैन संत-व्यक्तित्व एवं कृतित्व, पृ० २०८ । २. हिन्दी जैन साहित्य का संक्षिप्त इतिहास, कामताप्रसाद जैन, पृ० १६२ । ३. वही।
४. वही। ५. (अ) श्री जैन गूर्जर साहित्य रत्नो, भाग १, सूरत, पृ० २६० ।
(आ) जैन गूर्जर कविओ, भाग ३, खण्ड २, पृ० १४०६ ।