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परिचय बंड
एवं अपूर्व कल्पना से युक्त स्तवन हैं। कवि की हिन्दी भाषा पर गुजराती का अत्यधिक प्रभाव है । भाषा शैली की दृष्टि से एक उदाहरण पर्याप्त होगा
"आदि जिनेसर साहिवा, जन मन पूरे आश लाल रे । करीय कृपा करुणा करो, मन मंदिर करो वास लाल रे ||आ० १ महिमावन्त महन्त छे, जाणी कीयो नेह लाल रे।
आविहन ते नित पालीई, चातक जिम मनि मेहनलाल रे |आ० २" जिन उदयसूरि : (सं० १७६२ आसपास)
ये खरतरगच्छ की वेगड शाग्वा में हुए गुणसमुद्रसूरि जिनमुन्दरसूरि के मिप्य थे। इनके बारे में भी विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं। श्री मोहनलाज दलिचंद देमाई ने इनकी एक गुजराती कृति 'सुरसुन्दरी अमरकुमार रास'१ (सं० १७१६) तथा एक हिन्दी कृति '२४ जिन सवैया'२ (सं० १७६२) का परिचय दिया है। इस आधार पर इम कवि को जन-गूर्जर कवि माना है।
२४ जिन सवैया' कवि की हिन्दी कृति है। इसकी रचना संवत् १७६२ के बाद हुई थी। इसमें अन्तिम प्रशस्ति के साथ कुल २५ पद्य है। कृति २४ तीर्थकरों की स्तुति में रची गई है। इसकी एक प्रति जिनदत्त भण्डार बम्बई, पत्र एक से ७-१३, पोथी नं० १० में सुरक्षित है। इसकी एक और प्रति अभय जैन ग्रंथालय, बीकानेर में है। एक उदाहरण द्रष्टव्य है जिसमें-कवि ने रचना का हेतु बताते हुए लिखा है--
"पाप को ताप निवारन को हिम ध्यान उपावन को विरचीसी, पुण्यथ पावन को गृह श्री शुद्ध ग्यानं जनावन के परचीसी । ऋद्धि दिवाचन को हरि सीयह बुधि वधावन को गिरचीसी,
श्री जिनमुन्दरसूरि सूसीस कहै, नउदैसूरि मुजैन पचीसी ।२५॥" किसनदास : (सं० १७६७ आसपास )
ये लोकगच्छ गजरात के श्री संघराज जी महाराज के शिष्य थे।३ इनके जन्म, जाति और मूल निवास के संबंध में प्रामाणिक जानकारी नहीं मिलती। कच्छ के
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१. जैन गूर्जर कविओ, भाग २ पृ० १७६ । २. वही, भाग ३, खण्ड २, पृ० १२१३ । . . ३. शिरि मंदराज लोंकागच्छ शिरताज आज ।
तिनकी कृपा ते कविताई पाई पावनी ।। किसनदास कृत उपदेश वावनी, संपा० डॉ० अम्बाशंकर नागर, गुजरात के हिन्दी गौरव ग्रंथ, पृ० १८२।