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आलोचना-गंट
साधनरूप ही होती है, साध्यरूपा नहीं । सामान्यतः आलोन्यकालीन जैन गूर्जर कवियों ने प्रकृति का इस रूप में प्रयोग कम ही किया है। किन्तु उदाहरण प्राप्त हो ही जाते है । एक उदाहरण देखिए
"चांपा ते रूपइ ख्यटा, परिमन मुगन्ध सल्प !
भमरा मनि मान्या नहीं, गुण जाणइन अनुप ।।"१ कवि ने उक्त पंक्तियों में भ्रमर के माध्यम से उन लोगों के प्रति संकेत किया है जो गुण को नहीं पहचान पाते और तत्व को छोड़ बैठते हैं। इस प्रकार मे कवि गुणों को पहचानने का उपदेश देते दिखाई देते हैं।
प्रकृति के माध्यम से ब्रह्मवाद की प्रतिष्ठा : प्रकृति के माध्यम से आलोच्य-कालीन जैन गुर्जर कवियों ने सभी पदार्थों में ब्रह्म के होने की कल्पना कर के ब्रह्म की सर्वव्यापकता पर प्रकाश डालने का प्रयत्न किया है। आचार्य धर्मवद्धन प्रायः सभी पुप्पो में प्रभु का वास देखते हैं । "केतकी मे केसव, कल्याण राइ केवरा में,
कुज में जसोदमुत कुद में विहारी है। मालती में मुकुन्द मुरारि वास भोगरें,
गुलाब में गुपाल लाल मौरभ सुधारी है । जही में जगतपति कृपाल पारजात हु में,
पाडल में राज प्रभु पर उपगारी हैं । चम्प में चतुर्भुज चाहि चित चुभि रह्या,
सेवंती में सीताराम स्याम सुखकारी है ॥२ उक्त विश्लेपण करने के पश्चात् इस बात की प्रतीति हो जाती है कि आलोच्यकालीन जैन-गूर्जर कवियों ने प्रकृति के जिस रूप को सर्वाधिक मात्रा में ग्रहण किया है वह है उद्दीपनगत एवं अलंकारगत । वस्तुत: कविता में उद्दीपनगत चित्रण ही प्रकृति का सही रूप है क्योंकि इसमें मनुष्य की भावनाएं जितनी गहराई से रम सकती है उतनी किसी अन्य रूप में नहीं। इन कवियों में प्रकृति के मानवीकरण का प्रयास प्राप्त नहीं होता। मूलतः ये कवि उपदेशक रहे है। इनका काम धर्म प्रचार करना रहा है फिर भी इनका प्रकृति-चित्रण अपने मत की पुष्टि के लिए नहीं किया गया । उपदेशरूपा प्रकृति जैसे यहाँ है ही नहीं और जहाँ कही है मी वहाँ अत्यल्प ।
१. समयसुन्दर कृत कुमुमांजलि, पृ० ११३ २. धर्मवर्द्धन ग्रंथावली, पृ० १३७