________________
२७४
आलोचना-खंड
सारंग-आसावरी "अव हम अमर भए, न मरेंगे। या कारण मिथ्यात दियो तज, क्यू कर देह धरेंगे । राग-दोस जगबंध करत हैं, इनको नास करेंगे । मर्यो अनंत काल तें प्राणी सो हम काल हरेंगे। देह बिनासी हूँ अविनासी अपनी गति पकरेंगे । मर्यो अनंत बार विन समज्यो, अब सुख-दुःख विसरेंगे ।
आनंदघन निपट निकट अच्छर हो, नहिं समरे सो मरेंगे ॥"१
इसी प्रकार दिगम्बर कवियों में भट्टारक कुमुदचन्द्र का राग कल्याण में गाया एक पद और देखिए
"चेतन चेतत किउँ वावरे ॥ विपय विषे लपटाय रह्यो कहा, दिन दिन छीजत जात आपरे ॥१॥ तन धन योवन चपल सपन को, योग मिल्यो जेस्यो नदी नाउ रे॥ काहे रे मूढ न समझत अज हूँ,
कुमुदचन्द्र प्रभु पद यश गाउं रे ॥२॥"२
इन विभिन्न राग-रागिनियों के साथ इन कवियों ने सिन्ध, मारवाड़, मड़ता, मालव, गुजरात आदि स्थानों की प्रसिद्ध देशियां, रागिनियां, ख्याल आदि का समावेश कर अपने ग्रथों को 'कोष' का रूप प्रदान किया है। इन कवियों द्वारा गृहीत एवं विनिर्मित देशियों की टेक पंक्तियों का परवर्ती कवियों ने खुलकर प्रयोग किया है। इस दृष्टि से जैन-गूर्जर कवियों ने लोक-साहित्य का बड़ा उपकार किया है। लोकगीतों की धुनों के आधार पर अनेक गीतों की रचना की है और साथ ही उनकी आधार भत धनों के गीतों की आद्यपंक्तियों का भी अपनी अपनी रचनाओं के साथ उल्लेख कर दिया है । धर्मवर्धन विरचित गीतों की कुछ धुनें इस प्रकार है ।३
(१) मुरली वजावं जी आवो प्यारो कान्ह । - (२) उड़ रे आंवा कोइल मोरी।
१. गुजरात के हिन्दी गौरव ग्रंथ, डॉ० अम्बाशकर नागर, पृ० १४८ । २. हिन्दी-पद संग्रह, संपा० डॉ० कस्तूरचन्द कासलीवाल, पृ० २० । ३. धर्मवर्धन ग्रंथावली, संपा० अगरचन्द नाहटा ।