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जैन गुर्जर कवियों की हिन्दी कविता
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कृतियों की कुछ प्रतियाँ जोधपुर, बीकानेर तथा पाटण के संग्रहों में सुरक्षित हैं । कनककुशल भट्टार्क के उपलव्ध ग्रंथ "लखपत मंजरी नाममाला", "सुन्दर शृङ्गार की रसदीपिका", "महाराओ श्री गोहडजीनो जस", "लखपति यश सिन्धु" आदि है।
इनकी 'लखपत मंजरी नाममाला' तथा 'लखपति यशसिन्धु' कृतियां विशेष महत्व की हैं । ये कृतियां महाराव लखपतसिंह की प्रशंसा में रची गई हैं । भापा-शैली की दृष्टि से एक उदाहरण द्रष्टव्य है
"अचल विध्य से अनुत्र किधों ऐरावत डरत । विकट वेर वेताल कनक संघट जब कुरत । अरि गढ गंजन अतुल सदल शृङ्खला वल तोरत । ऐसे प्रचण्ड सिंधुर अकल, महाराज जिन मान अति ।
पठए दिल्लीस लखपति को, कहे जगत धनि कच्छपति ।।" कुअरकुशल भट्टार्क : (सं० १७९४-१८२१)
गुजरात के कच्छ प्रदेश में ब्रजभापा-साहित्य की परम्परा का सूत्रपात करने वाले, हेमविमलसूरि संतानीय और प्रतापी गुरुवर्य प्रतापकुशल के पट्टधर कनककुशल भट्टार्क के ये प्रधान शिष्य थे ।१ ये महाराव लग्बपति और उनके पुत्र गौड दोनों द्वारा सम्मानित थे। यही कारण है कि इनके ग्रन्यों में कुछ ग्रन्थ महाराव लखपति को तथा कुछ महाराव गोड को समर्पित हैं। इन्होंने अपने गुरु से भी अधिक ग्रथों की रचना की है। महापंडित कुअरकुशल का ब्रजभाषा पर असाधारण अधिकार था। संस्कृत, फारसी आदि भाषाओं के साथ काव्य तथा संगीत में भी अधिकारी विद्वान थे।
___ कुंअरकुशल भट्टार्क की रचनाएँ संवत् १७६४ से १८२१ तक की प्राप्त हैं। इन कृतियों की अनेक हस्तलिखित प्रतियां हेमचंद्रनान भण्डार, पाटण; राजस्थान प्राच्य शोध प्रतिष्ठान, जोधपुर तथा अभय ग्रंथालय, बीकानेर में सुरक्षित हैं । कवि ऋोग, छन्द, अलंकार आदि के अच्छे विद्वान थे।
इनके उपलब्ध ग्रंथ इस प्रकार हैं-"लखपत मंजरी नाममाला", "पारमति ( पारसात ) नाममाल"; "लखपत पिंगल" अथवा "कवि रहस्य", "गोड पिंगल", . "लग्बपति जससिंधु", "लखपति स्वर्ग प्राप्ति समय" (मरसिया), "महाराव लखपति दुवावैत", "मातानो छन्द" अथवा ईश्वरी छन्द", 'रागमाला' आदि। इनमें 'लखपति पिंगल' और 'लखपति जससिंधु' महत्वपूर्ण रचनाएं हैं। इनमें रीतिकालीन आचार्य
१. मुनि कांतिसागर जी (उदयपुर) की पांडुलिपि-अज्ञात साहिन्य वैभव ।