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परिचय गट
उक्त पंक्तियों में कवि ने हिन्दी गुजराती गो पात्मकता को बड़े ही गुन्दर ढंग में परस्पर संयुक्त कर दिया है । इसी तरह बहाव और गुमाप्ति नी घटेगरन और स्वाभाविक रूप से आये हैं । कवि की मायाभिव्यनि में हिन्दी का प्रभाव स्पष्ट लक्षित है -
" दुनिया में यारा विगर, जे जीवणा मयि फोक,
कह्या न जावे हर किसे, आपणे दिल का गोक ॥" ? इसी तरह " नलदमयंती रास" और " रूपचंद कुवरदास" के कई प्रसंग बीच दीन में हिन्दी में रचित मिलते हैं। शुभचंद्र भट्टारक : (सं० १५७३-१६१३)
ये पद्मनन्दि की परंपरा में मट्टारक विजयीति के गिप्य थे । उनकी गुरु परंपरा इस प्रकार स्वीकृत है-पद्मनन्दि, सकलकाति, भुवनकीति, बानभूपन, विजयकीति और शुभचंद्र । २
___भट्ठारक शुभचंद्र १६वीं-१७वीं शतातब्दी के महान् सहित्यसेवी, प्रसिद्ध मट्टारक, धर्म प्रचारक एवं शास्त्रों के अध्येता ये। शुभचंद्र के भट्टारक बनने के पूर्व नट्ठारक सकलकीर्ति एवं उनके पट्ट, शिप्य-प्रशिप्य भुवनकोति, ज्ञान भूपण एवं विजयकीति ने अपनी विद्वत्ता, जनसेवा एवं सांस्कृतिक चेतना द्वारा वातावरण इतना सरल और अनुकूल बना दिया था कि इन संतों के लिए जैन समाज में ही नहीं जेनेतर समाज में भी लगाव श्रद्धा पैदा हो गई थी। जन्म, बाल्यकाल, गृहास्य-जीवन, अध्ययन आदि के संबंध में कोई उल्लेख नहीं मिलता। उन्होंने सं० १५७३ में आचार्य अमृतचन्द्र के " समयसार कलशों" पर " अध्यात्मतरंगिणी" नाम की टीका लिखी और सं० १६१३ में वर्णी क्षेमचन्द्र की प्रार्थना से" स्वामीकार्तिकेयानुप्रेक्षा" की संस्कृत टीका रची। अतः रचना काल वि० सं० १५७३ से १६१३ सिद्ध है । संभवतः नद्वारक पद पर रहनेका भी यही समय है। श्री वी० पी० जोहारपुर के मतानुसार ये १५७३ में नट्ठारक बने और संवत् १६१३ तक इस पद पर बने रहे । ३ बलात्कार गण की ईडर शाखा के ये महारक थे। अपने ४० वर्ष के मट्ठारक पद का खूब सदुपयोगकर इन्होंने राजस्थान, पंजाब, गुजरात १ आनंद काव्य महोदधि, मौक्तिक ६, " नलदमयंती रास", पृ० २०६ २ पाण्डवपुराण प्रशस्ति, अन्त भाग, श्लोक १६७-१७१, जैन ग्रंथ प्रगस्ति संग्रह, प्रथम भाग, पृ० ४६-५० ३ भट्टारक पट्टालि, पृ० १५८