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________________ २२६ आलोचना-खंड गुरु भक्ति : भक्ति के क्षेत्र में गुरु का बड़ा महत्व है। साधक गुरु को लेकर ही अपनी भक्ति-यात्रा आरम्भ करता है । शुद्ध भाव से गुरु में अनुराग करना ही गुरु-भक्ति है । 'गुरु में अनुराग' का तात्पर्य-गुरु के गुणों में अनुराग करने से हैं । वैसे सभी सम्प्रदायों और सन्तों ने गुरु की महत्ता का प्रतिपादन किया ही है और गुरुविषयक रति के उदाहरण भक्तिकाल के प्रायः सभी कवियों की कविता में प्राप्त है । तुलसी ने गुरुविषयक रति भाव की अभिव्यक्ति में कहा "बन्दी गुरु पद पदुम परागा। सुरुचि सुवास सरस अनुरागा।"१ - कबीर आदि संतों ने गुरु को गोविन्द से भी श्रेष्ठ बताया है,२ क्योंकि उन्हें विश्वास था कि "हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहिं ठौर ।" जैन साहित्य में भी गुरु का विशेष महत्व है। इन कवियों ने सत्गुरु का महत्व निर्विवाद और अविकल रूप से स्वीकार किया है। यहां गुरु और ब्रह्म में भेद नहीं स्वीकार किया गया है ।३ इन्होंने अर्हन्त और सिद्ध को भी 'सत्गुरु' की संज्ञा से अभिहित किया है। जैन आचार्यो ने पंच परमेष्ठी (अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु ) को पंचगुरु कहा है। कवि चतरमल ने पंचगुरुओ को प्रणाम करने से मुक्ति मिलने की बात कही है ।४ जैन कवि सच्चे अर्थों में गुरु भक्त थे। उन्होंने बताया है कि जब तक गुरु की कृपा नहीं होती तब तक व्यक्ति मिथ्यात्व रागादि में फंसा हुआ संसार में भ्रमण करता रहता है सद् और असद् तथा जड़ और चेतन में अन्तर नहीं कर पाता। अतः वह 'कुतीर्यो' में घूमता रहता है और धर्तता करता रहता है । जैन आचार्यों ने 'गुरु' को मोक्ष मार्ग का प्रकाशक कहा है।५ १. राम चरित मानस, तुलसीदास, बालकाण्ड, प्रारम्भिक मंगलाचरण । २. गुरु गोविन्द दोऊ खड़े काके लागूपाय । वलिहारी गुरु आपने जिन गोविन्द दयो वताय ।। -कबीर-गुरुदेव को अग, संत सुधाकर, वियोगीहरि संपादित १४ वी साखी, पृ० १२० । ३. चिद्रपचिता चेतन रे साखी परमब्रह्म । परमात्मा परमगुरु तिहां नवि दीसियम्म ।। -~-तत्वसार दूहा, शुभचन्द्र, मन्दिर ढोलियान, जयपुर की प्रति । ४. लहहि मुकति दुति दुति तिर, पंच परम गुरु त्रिभुवन सारू ।। नेमीश्वर गीत-चतरूमल, आमेरशास्त्र भण्डार की प्रति, मंगलाचरण । ४. "गुरु भक्तिसंयमाभ्यां च तरन्ति संसारसागर घोरम् ।" - दश भक्ति : आचार्य कुन्दकुन्द, प्राकृत आचार्य भक्ति, क्षेपक श्लोक, पृ० २१४ ।
SR No.010190
Book TitleGurjar Jain Kavio ki Hindi Sahitya ko Den
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHariprasad G Shastri
PublisherJawahar Pustakalaya Mathura
Publication Year1976
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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