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जैन गुर्जर कवियों को हिन्दी कविता
जैन सम्प्रदाय में निश्चय और व्यवहार 'नय' की दृष्टि से गुरु दो प्रकार के माने गये हैं । व्यवहार गुरु की बात तो ऊपर हो चुकी है । निश्चय गुरु अपनी आत्मा ही होता है । आत्मगुरु की वाणी अन्तर्नाद कहलाती है जो कभी-कभी सुनाई भी पड़ती है। आचार्य पूज्यवाद ने 'समाधितंत्र' में कहा है-- 'आत्मा ही देहादि पर पदार्थों में आत्मबुद्धि से अपने को संसार में ले जाती है और वही आत्मा अपपने आत्म में ही आत्म-बुद्धि से अपने को निर्वाण में ले जाती है । अतः निश्चय नय बुद्धि से आत्मा का गुरु आत्मा ही है, अन्य कोई नहीं ।" १ जीव अपनी मूढ़ता वश इस आत्मगुरु को पहचान नहीं पाता । यह रहस्य जानना प्रत्येक साधक का कर्तव्य है ।
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जैन कवियों की गुरु भक्ति में अनुराग को पर्याप्त स्थान मिला है । इन्होंने गुरु के मिलन और विरह दोनों के गीत गाये हैं । गुरु के मिलन में शिष्य को संपूर्ण प्रकृति लहलहाती हुई दिखाई देती है और विरह में वह समूचे विश्व को उदासीन देखता है | उपाध्याय जयसागर की 'जिनकुशल सूरि चौपई' कुशल लाभ की 'श्री पूज्य वाहण गीतम्', साधुकीर्ति की 'जिनचन्द्र सूरि गीतम्' आदि कृतियां अनुरागात्मक गुरु भक्ति की उज्ज्वल प्रतीक हैं ।
कवि समयसुन्दर अपने गुरु राजसिंहमूरि की अनुराग - भक्ति की भाव-विभोरावस्था में कह उठे थे—- " मेरा आज का दिन धन्य है । हे गुरु ! तेरे मुख को देखते ही जैसे मेरी समूची पुण्यदशा साक्षात हो गई । हे श्री जिनसिंहसूरि । मेरे हृदय में सदैव तू ही रहता है और स्वप्न में भी तुझे छोड़कर अन्य कोई दिखाई नहीं देता । मेरे लिए तुम कुमुदिनी के चन्द्र समान हो, जिसको कुमुदिनी दूर होते हुए भी सदैव समीप ही समझती है । तुम्हारे दर्शनों से आनन्द उत्पन्न होता है, मेरे नेत्र प्रेम से भर जाते हैं । प्राण तो सभी को प्यारा होता है, किन्तु तुम मुझे उससे भी अधिक
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प्रिय हो
"आज कु धन दिन मेरउ ।
पुन्य दशा प्रकटी अब मेरी, पेखतु गुरु मुख तेरउ || श्री जिनसिंहसूरि तुहि मेरे जीउ में, सुपनइ मई नहीय अनेरो । कुमुदिनी चन्द्र जिसउ तुम लीनउ, दूर तुही तुम्ह नेरउ ||
नर्यथात्मात्मेव जन्मनिर्वाणमेवच ।
गुरु रात्मात्मनस्तस्मान्नायोऽस्ति परमार्थतः ॥ ७५ ॥
-- ममाधितन्त्र-- आचार्य पूज्यपाद, पं० जुगल किशोर मुख्तार संपादित, १९३९ ई० ।