________________
तुम्हारइ दरसण , आणंद उपजती , नयन को प्रेम नयेउ ।। समयसुन्दर" कहइ सब कुचलम, जीउतु तिन था अधिकरउ ॥३॥"?
श्री कुगल लाम ने आचार्य पूज्यवाहण की भक्ति में उसी प्रकार की नरमता का परिचय दिया है कवि ने लिया है, " आपाट ने आते ही दामिनी अबुकने लगी। कोमलांगी अपने प्रिय की बाट जोहने लगी। चातक मधुर ध्वनि में" पीट पीर करने लगा और सरोवर बरसात के विपुल जल से भर गये । इस अवसर पर महान श्री पूज्यावाहारणजी श्रावकों को मुग देने के लिय प्रम्बावनी में आये । वे दीक्षा-रमनी के साथ रमण करते हैं और उनमें हर किसी का मन बंधकर रह जाता है। उनके प्रवचन में कुछ ऐसा आकर्षण है कि उसे सुनकर वृक्ष भी झूम उठे हैं, कामिनी-कोकिल गुरु के ही गीत गाने लगी है, गगन गूज उठा है और मयूर तथा नकोर नी प्रसन्न होकर नाच उठे है । गुरु के ध्यान में स्नात होकर शीतल हवा की लहरें बहने लगी है। गुरु की कीर्ति और मुयश से ही सम्पूर्ण संसार महक रहा है। विश्व के सातो क्षेत्रों में कर्म उत्पन्न हो गया है। श्री गुरु के प्रसाद से सदा सुख उत्पन्न होता है।" "आव्यो मास असाढ झवूके दामिनी रे।।
जोवइ जोवइ प्रीयडा वाट सकोमल कामिनी रे ॥"
साते क्षेत्र सुठाम मुधर्म ह नीपजइ रे।
श्री गुरु पाय प्रसाद मदा मुख मपजइ रे ।। "२ साधुकीर्ति की " जिनचन्दसूरि गीतानि " में गुरु की प्रतीक्षा की वेचनी प्रोपित्पतिका की वे नी हो उठी है । कवि ने कहा है," हे सखि । मेरे लिए तो वत ही अत्यधिक सुन्दर है, जो यह बता दे कि हमारे गुरु किस मार्ग से होकर पधारेंगे श्री गुरु सभी को सुहावने लगते हैं और वे जिस पुर में आ जाते हैं, उमकी तो मानो शोभा ही शोभा हो जाती है । उनको देखकर हर कोई. जयजयकार किये बिना नही रहता । जो गुरु की आकाज को भी जानता है, वह मेरा साजन है। गुरु को देखकर ऐसी प्रसन्नता होती है जैसे चन्द्र को देखकर चकोर को और सूर्य को देखकर कोक को । गुरु के दर्शनों से हृदय सन्तुष्ट, पुण्य पुष्ट और मन प्रमन्न होता है. हे निद्वन्द्वी १. ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह, जिनसिह सूरि गीतम्, ७वां पद्य संपा० अगरचन्द
नाहटा, पृ० १२६ २. ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह, श्री नाहटा संपादित, " श्री पूज्यवाहण गीतम्"
कुशल लाभ, पद्य ६१-६४, पृ० ११६-११७
-_Sa Kh. 2.3 इत्युवाच
- 2 ) K... प्रियदर्शनां.