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परिचय खंड
रचना की है। कवि का प्रत्येक कवित्त सरल एवं प्रभावोत्पादक है। आत्मानुभूति, अर्थ सारस्य एवं पदलालित्य से सरावोर ये कवित्त बड़े ही सजीव एवं मर्मस्पर्शी हो उठे हैं। जीवन और जगद् की क्षणभंगुरता एवं अंजलि के जल की भांति आयु के छोजने की बात कवि ने किस प्रभावपूर्ण शब्दों में चित्रित की है--
"अंजली के जल ज्यों घटत पल-पल आयु, विष से विषम विविसाउन विप रस के, पंथ को मुकाम का वाप को न गाम यह, जैवो निज धाम तातें कीजे काम यश के, खान सुलतान उमराव राव रान आन, किसन अजान जान कोऊ न रही सके. सांझरु विहान चल्यो जात है जिहान तातै, .
हम हूँ निदान महिमान दिन दस के ॥२०॥" जैन मतावलंबी होते हुए भी कवि ने सर्वत्र उदार एवं असाम्प्रदायिक विचारों को व्यक्त किया है। मन वड़ा हरामी है। उसे वश में करना पहली शर्त है । पर तप-जपादि, मूड मुंडाने, बनवास लेने और वाह्याचारों से वश में नहीं होता । बस मन शुद्ध होना चाहिए और परमात्मा की एक मात्र आशा, उसी का भाव निरन्तर रमता रहना चाहिए। इसी भाव की कुछ पंक्तियां दृष्टव्य हैं
"मन में है आस तो किसन कहा वनवास ॥५७॥" "हर है मन चंग तो कठौती में गंग है ॥२६॥"
"छांड़ी ना विभूति तो विभूति कहा धारी है ॥६॥" शांतरस की इस कृति में ज्ञान, वैराग्य और उपदेश मुख्य विषय रहे हैं। भाषा सरल, मुहावरेदार, ब्रजभापा है। भाषा भावानुकूल तथा सहज और स्वाभाविक अलंकारों से युक्त है। इसकी रचना ३१ मात्रा के मनहरण कवित्त में हुई है। भापा और छन्द योजना पर भी कवि का अच्छा अधिकार स्पष्ट लक्षित है। कवि की इप्टांतमयी सरल शैली और भापा-कौशल सराहनीय है। संक्षेप में, यह कृति भाषा, भाव एवं शैली की दृष्टि से सफल एवं उत्तम काव्य कृति है। हेमकवि : (सं० १९७६)
ये अंचलगच्छ के प्रसिद्ध आचार्य श्री कल्याणसागरसूरि के शिष्य थे ।१
१. जैन साहित्य संगोषक, खंड २, अंक १, पृ० २५ ।