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बैन गुर्जर कवियों की हिन्दी कविता
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कवि का पद साहित्य तो और भी उच्च कोटि का है । भाषा शैली एवं भाव मभी दृष्टियों से कवि के पद बड़े सुन्दर हैं। एक पद में प्रभू को मीठा उपालंभ देता हुआ भक्त कवि कहता है___ "प्रभू मेरे तुम ऐमी न चाहिए ।
सघन विधन घेरत सेवक कू मौन धरी क्यों रहिए ॥१॥" आदि
यहां कवि ने उन प्राणियों की मच्ची आत्मपुकार अधिन की है, जो जीवन में कोई भी शुभ कार्य नहीं करते और अंत में हाथ मलते रह जाते है
"मैं तो नरभव बाधि गमायो ॥ न कियो तप जप व्रत विधि मुन्दर । काम भन्नो न कमायो ।॥ १॥" "अंत मम कोउ संग न आवत । झूठहिं पाप लगायो ।। कुमुदचंद्र कहे परी मोही। प्रभु पद जस नहीं गायो ॥४॥"
भक्ति एवं अध्यात्म के अतिरिक्त नेमि-राजुल सम्बन्धी पद भी कवि ने लिन्वे हैं। जिनमें नेमिनाथ के प्रति गजमती की सच्ची विरह-पुकार है
"मन्वी रो अब तो रह्ययो नहि जात । प्राणनाथ की प्रीत न विसरत, छण छण छीजत जान ॥१॥"
कवि के इन पदों की सीधी-सादी भाषा में अध्यात्म, भक्ति, शृङ्गार एवं विरह की उत्तम भावाभिव्यक्ति है । कवि की अधिकांग रचनाएं लघु, स्फुट पद एवं म्नवनादि हैं। कवि की वडी रचनाओं में "भरतबाहुबलिछंद” एवं "आदिनाथ (ऋपभ) विवाहनो" विशेष महत्वपूर्ण एवं उल्लेखनीय कृतियां हैं।
भरतवाहुवलि छंद-यह एक उत्कृष्ट खण्ड काव्य है । इसकी रचना सं० १६७० ज्येष्ठ मुदि ६ को हुई थी। इसकी एक हस्तलिखित प्रति आमेर गास्त्र मंडार, जयपुर के गुटका नं० ५० में पृ० ४० से ४८ पर लिखित है।
इस काव्य में भरत और वाहुबलि के प्रसिद्ध युद्ध की कथा है। ये दोनों ही भगवान् ऋषभदेव के चक्रवर्ती पुत्र थे। चक्रवर्ती भरत को सारा भूमण्डल विजय करने के पश्चात् मालूम होता है कि अभी उसके भाई बाहुबलि ने उसकी अधीनता स्वीकार नहीं की है । सम्राट बाहुबलि को समझाने का प्रयत्न असफल होने पर और युद्ध अनिवार्य बनने के पश्चात् दोनों की सेनाएँ आमने-सामने हुई और युद्ध हुआ। इस युद्ध में बाहुबलि पराजित होकर जव तपस्यारत हुआ तब उसे यह पता चले विना नहीं रहा कि वह जिस भूमि पर खड़ा है वह भी भरत की ही है। उसके मन का यह दंश तव दूर हुआ जब भरत उसके चरणों पर गिर स्थिति को स्पष्ट