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आलोचना-खड
आधार हैं-साधना और प्रेम । गोरखनाथ ने अपने पंथ में हठयोग का आधार लिया, आगे चलकर यही हठयोग संतमत की साधना का प्रधान अंग माना जाने लगा । जैनधर्म है । काया को साधकर, इन्द्रियों को वशकर केवलज्ञान की प्राप्ति जैन साधना का अंतिम लक्ष्य है।
जैन काव्य और संत काव्य में अद्भुत समानता है-बाह्याउम्बर का विरोध, संसार की आसारता का चित्रण, चित्तशुद्धि और मन के नियन्त्रण पर जोर, गुरु की महिमा, आत्मा-परमात्मा का प्रिय-प्रेमी के रूप में चित्रण आदि में यह समानता देखी जा सकती है। दोनों ने ब्रह्म की सत्ता घट घट स्वीकार करते हुए भी उसे सर्व व्यापक, निर्गुण, निराकार और अज माना है। पाप और पुण्य दोनों ही समानरूप से बन्धन के कारण है अतः त्याज्य हैं। इनमें इस साम्य का उपयुक्त कारण यही हो सकता है कि ये सच्चे अर्थों में संत और मुनि थे । यह साम्य अनुभव जनित तथ्यों का साम्य है। महात्मा आनन्दधन और कबीर में प्राप्त अद्भुत साम्य के पीछे यही मूल कारणभूत है। हां, कबीर से महात्मा आनन्दघन करीब दो-ढाई सौ वर्ष पश्चात् हुए, जो कबीर से बहुत कुछ अंशों में प्रभावित रहे हैं, पर इनमें अपनी अपनी स्थानुभूति का साम्य विशेष है ।
आत्मा परमात्मा के सम्बन्ध में कबीर और जैन कवियों में अन्तर इतना ही है कि जैन कवियों की दृष्टि से अनेक आत्मा अनेक ब्रह्ममरूप हो सकते हैं जबकि कबीर की दृष्टि से अनेक आत्मा एक ही ब्रह्म के अनेक रूप हैं। वस्तुतः आत्मा परमात्मा में कोई तात्विक भेद नहीं। दोनों की यही धारणा है। आत्मा और ब्रह्म की एकता कबीर ने जल और कुम्भ तथा लहर और सागर के प्रतीकों द्वारा प्रस्तुत की है । जिस प्रकार घड़े के भीतर और बाहर एक ही जल है, उसी प्रकार सर्वव्यापक परमात्मा और शरीरस्थ आत्मा दोनों एक ही हैं । घड़े का बाह्य व्यवधान दूर हो जाने पर जलादि एक हो जाते हैं, उसी शरीरजन्य कर्मों के क्षय होने पर आत्मा परमात्मा का भेद समाप्त हो जाता है ।१ आत्मा परमात्मा के बीच की इस भेद-रेखा का विलीनीकरण चित्त की शुद्धि और गुरु की कृपा से ही संभव है। यही कारण है कि संतों ने गुरु को गोविन्द से भी बड़ा स्थान दिया और जब आत्मा परमात्मा एक ही है तो उसे खोजने वाहर भटकने की आवश्यकता नहीं, उसका दर्शन तो अन्तर में ही हो जाता है। अतः संतों और जैन कवियों ने बाहर भटकने का निषेधकर देह-देवालय में प्रतिष्ठित देव का दर्शन करने को कहा है। कवीर ने शरीर में स्थित देव का परिचय देने के लिए कभी उसे "कस्तूरी कुण्डलि बस, मृग
- १. श्यामसुन्दर दास संपा० कबीर ग्रंथावली, पृ० १०५ ।