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जैन गूर्जर कवियों की हिन्दी कविता
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रही है ।
के सगुण ब्रह्म के अवतारी हैं । जैन कवियों के अर्हन्त को उस रूप में अवतारी नहीं कहा जा सकता । क्योंकि ये तप और व्यान द्वारा अनन्त परीषहों को सहन कर, चार घातिमा कर्मों का क्षय कर अर्हन्तमद के अधिकारी बनते हैं । सूर तुलसी के ब्रह्म पहले से ही ब्रह्म है, यहां अर्हन्त अपने स्वपोरुप से भगवान बनते हैं । फिर भी अपनी साकारता, व्यक्तता और स्पष्टता की दृष्टि से इन दोनों में अंतर नहीं दिखता । यही कारण है कि जैनों में अर्हन्त की सगुण ब्रह्म के रूप में ही पूजा होती परन्तु सिद्ध अर्हन्त से बड़े है । ये आठ कमों का क्षय कर, शरीर को त्याग कर, शुद्ध आत्म रूप में सिद्धशिला पर आसीन होते हैं, अतः निराकार भी हैं । १ मध्यकालीन हिन्दी काव्य धारा में नवीन विचारों की जो लहरें दक्षिण से उत्तर तक उठती हुई आई, वे यहां की परिस्थितियों के अनुरूप हो, अपने कई रूपों में प्रगट हुई | आचार्य शुक्लजी ने "सगुण" और " निर्गुण" नामक दो शाखाओं में उन्हें विभक्त कर दिया और बाद के सभी इतिहास लेखकों ने इसे स्वीकार कर लिया । किन्तु अर्हन्त - भक्ति से संबंधित विशाल साहित्य की परिगणना इसमें नहीं हो सकी, जो परिमाण और मूल्य दोनों ही दृष्टियों से महत्वपूर्ण कहा जा सकता है । वस्तुतः जैनभक्ति की अखण्ड परम्परा ने १८वीं शती तक भारतीय अन्तश्चेतना को सुदृढ़ तथा जागरूक बनाये रखने का निरन्तर प्रयत्न किया है ।
संत कवि और जंन कवि :
संत शब्द गुण वाचक है,
जिसमें समस्त सज्जन एवं साघुपुरुष समाहित हैं । एक विशिष्ट धार्मिकता की दृष्टि से इसका अर्थ निकाला जाय तो, जो सांसारिक और भौतिक विपयादि से ऊपर उठ गया है, वह संत है । ऐसे संत प्रत्येक धर्म और सम्प्रदाय में मिल सकते हैं । इस दृष्टि से जैनभक्ति एवं अध्यात्म साहित्य के प्रणेता इन वीतरागी जैन- गुर्जर कत्रियों को भी सच्चे अर्थों में "संत" कह सकते हैं ।
जिन विचारों को लेकर हिन्दी के संत कवि आये उनकी पृष्ठभूमि पूर्व निर्मित ही थी । इसमें शैव, शाक्त, बोद्ध, जैन, नाथपंथी आदि सभी का हाथ था । यह लोक धर्म था, जो कवीर की वाणी में प्रकट हुआ । आगे चलकर इसी परम्परा के दर्शन २७वीं एवं १८वीं शती के इन जैन - गुर्जर - कवियों में भी होते हैं । चेतावनी, खंडन और मंडन संत साहित्य के ये तीन प्रमुख अंग ब्रह्म "सगुण" और "निर्गुण" से परे है, फिर भी प्रेम रूप है । १. "निष्कलः पश्चविध शरीर रहितः परमात्म प्रकाश ११२५ । ब्रह्मदेव की संस्कृत टीका, पृ० ३२ ।
। इनका इसकी प्राप्ति के