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________________ ३२० आलोचना-खंड अवस्थिति भी इनकी वाणी में समुचित रूप में मिल जाती है तथापि वह इनके काव्य का विधायक अंश नहीं है । इन अध्यात्म मार्ग के साधक कवियों की कविता सुन्दर मुमनों में सजी पवित्रता की प्रतिमूर्ति वनदेवी-सी प्रतीत होती है । इन कवियों को संत कवियों की तरह आध्यत्मिक कवियों को कोटि में रखा जा सकता है जिनकी कविता में आत्मतत्व की सुगन्धमय अभिव्यक्ति हुई है। आत्मा और परमात्मा के सम्बन्धों की भावमयी अनुभूति ही जन-गूर्जर कवियों की कविता का मूल विषय रहा है। इसमें अज्ञान-विमुड़ित मानव को झकझोर कर उठा देने की अलौकिक क्षमता है। ___ ज्ञानानन्द, यशोविजय, आनन्दघन, विनयविजय आदि ऐसे ही श्रप्ठ आध्यात्मिक कवि हैं जिन्होंने आत्मा और परमात्मा के सम्बन्ध पर प्रकाश डाला है। इनके मतानुसार आत्मा और परमात्मा के संबंधों के इन रहस्यमय वर्णनों में एक दिव्य रसायन है, जिसकी वास्तविक प्रतीति हो जाने पर समस्त भावनाएं, कामनाएं और वासनाएं तृप्त हो कर शांत होने लगती हैं। और साधक अनन्त रसानन्दमय निर्वाण स्थिति को प्राप्त करने लगता है। यही वह स्थिति है जब अजपा जाप चलता है, अनहद नाद उठता है, आनन्द के धन की झड़ी लग जाती है और आत्मा परमात्मा से एकलयता अनुभव करने लगती है। परन्तु इस स्थिति पर पहुँचना आसान नहीं। इसके लिए बड़ा कठिन त्याग एवं तप करना पड़ता है । वह सच्ची आत्म प्रतीति तथा अनुभव ज्ञान की लाली तो तव फूटती है जव शरीर रूपी भट्टी में मुद्ध स्वरूप की आग सुलगाकर अपने अनुभवरस में प्रेम रूपी मसाला डाला जाय और उसे मन रूपी प्याले में उबाल कर उसके सत्व का पान किया जाय ।२ आलोच्यकालीन जैन गूर्जर कवियों की कविता का हिन्दी भक्ति-साहित्य की परम्परा के परिवेश में मूल्य एवं महत्व : हिन्दी का भक्ति-काव्य निर्गुण और सगुण भक्ति काव्य के रूप में विभाजित कर दिया है। जैन कवियों का भक्ति-काव्य इस रूप में विभाजित नहीं किया जा सकता । इनकी कविता में निर्गुण और सगुण दोनों का समन्वय हुआ है । इन्होने किसी एक का समर्थन करने के लिए दूसरे का खण्डन नहीं किया । सूर और तुलसी १. "उपजी धुनि अजपा की अनहद, जीत नगारे वारी । झड़ी सदा आनन्दधन वरखत, विन मोरे एक तारी ॥" -आनन्दधन पद संग्रह, पद २०, पृ० ५२ । २. वही, पद २८, पृ० ७८-देखिए पिछला पृष्ठ ।
SR No.010190
Book TitleGurjar Jain Kavio ki Hindi Sahitya ko Den
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHariprasad G Shastri
PublisherJawahar Pustakalaya Mathura
Publication Year1976
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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