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प्रकरण : ७
आलोच्य कविता का मूल्यांकन और उपसंहार मूल्यांकन :
काव्य एक अनिर्वचनीय तत्व है, जिसकी प्रतीति आनन्दवर्द्धन ने इस प्रकार कराई है--
"प्रतीयमानं पुनरन्यदेव. वस्त्वस्ति वाणीपु महाकवीनां । , एतत् प्रसिद्धायवातिरिक्तं श्रिमाति लावण्यमिवांगनासु ॥"१
अर्थात् स्त्रियों में शरीर- सौष्ठवगत सौन्दर्य के अतिरिक्त भी लावयरूप एक अनिर्वचनीय तत्व होता है, उसी प्रकार महाकवियों की वाणी में भी प्रतीयमान अनिर्वचनीय सौन्दर्यतत्व विद्यमान होता है। यह अनिर्वचनीय सौन्दर्यतत्व तव तक वाणी में नहीं उतर सकता जब तक कवि की अभिव्यक्ति सीधी आत्मा से न हो। अतः आत्मतत्व की गहन अनुभूति ही सच्चा एवं चिरंतन काव्य है। यही अमृतरूपा काव्य है, यही आत्मा की कला है,२ जिसमें सच्चिदानन्दमय आत्मा की अभिव्यक्ति है। इस प्रकार के काव्य में वाह्य-विधान-छन्द, गुण, अलंकार आदि की आवश्यकता नहीं रहती। इनका विधान सायास न होकर स्वाभाविक रूप से यथास्थान हो जाता है। यहाँ तो आत्मा का अलौकिक आनन्द रस फूटता रहता है, जिसमें कवि स्वयं रस-सिक्त है तथा जगत् के प्राणियों को भी अपने स्तर-भेद से उसमें स्नान कराता चलता है।
इन वीतरागी जैन-गूर्जर संत कवियों की कविता का मूल्यांकन इसी कसौटी पर करना चाहिए। इनकी कविता के गुण, छन्द, अलंकार आदि वाह्य उपकरणों पर ध्यान देने की अपेक्षा हमें उनके स्वानुभूतिमय अनिर्वचनीय चेतनतत्व को अभिव्यक्ति की गुणावत्ता का परीक्षण करना चाहिए । यद्यपि इन वाह्य उपादानों की
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१. ध्वन्या लोक, ११४॥ २. भवभूति ने काव्य को "अमृतरूपा" तथा "मात्मा की कला" कहा है-~
उत्तर राम चरित १।१।