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________________ जैन गुर्जर कवियों की हिन्दी कविता ३२६ में प्रयुक्त शब्दों में भी अद्भुत साम्य है । वस्तुतः शून्य, सहज, निरंजन, चन्द्र, सूर्य, आदि शब्दों का सर्वत्र एक अर्थ नहीं हो सकता और न काल के बहते प्रवाह में यह संभव ही है । फिर भी इनकी चितन प्रणाली, विशिष्ट भावधारा, अभिव्यक्ति का ढंग आदि को देखते हुए लगता है कि ये सभी शब्द तथा भाव तत्कालीन समाज की विचारधारा में परिव्याप्त थे, जिनका प्राचीन परस्परा के रूप में निर्वाह हो रहा था । निश्चय ही इनका मूल स्रोत अति प्राचीन रहा है, जिसमें जैनों तथा अन्य सभी सम्प्रदायों ने अपने जीवन के तत्व ग्रहण किये । वस्तुतः जन-मानस के अज्ञात स्रोतों से बहकर आनेवाली परम्परा की यह स्रोतस्विनी १७वीं एवं १८वीं शती के जैन गुर्जर कवियों के मानसकूलों से भी टकराई और अपनी मधुमयी अभिव्यक्ति के रूप में इस युग के साहित्य को भी शांतरस की लहरियों में निमज्जित करती रही। इस प्रकार देखने से ज्ञात होता है कि भक्तिकाल के कवियों की भांति इन जैन कवियों की काव्यधारा का महत्व भी निर्विवाद | इसी महत्व की स्वीकृति पुरुषोत्तमदास टंडन जी की वाणी में प्राप्त होती है ! जैन संत कवियों पर विचार करते हुए उन्होंने लिखा है - "इनकी वानी उसी रंग मेंरगी है और उन्हीं सिद्धान्तों को पुष्ट करने वाली है जिनका परिचय कबीर और मीरा ने कराया है - आंतरिक प्रेम की वही मस्ती, संसार की चीजों से वही खिंचाव, धर्म के नाम पर चलाई गई रूढियों के प्रति वही ताड़ना, वाह्य रूपान्तरों में उसी एक मालिक की खोज और बाहर से अपनी शक्तियों को खींच कर उसे अन्तमुखी करने में ही ईश्वर के समीप पहुंचने का उपाय । १ सांस्कृतिक दृष्टि से महत्व एवं मूल्याँकन भारतीय संस्कृति का विकास विभिन्न रूपों में हुआ है, परन्तु इन विभिन्नताओं की तह में एकरूपता वरावर विद्यमान रही है । बाह्य संस्कृतियों से प्रभावित होकर भी भारतीय संस्कृति की अन्तरात्मा में कहीं किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं हुआ है । हजारी प्रसाद द्विवेदी जी के शब्दों में "संस्कृति मनुष्य की विविध साधनाओं की सर्वोत्तत परिणति है । "धर्म" के समान वह भी अविरोधी वस्तु है । वह समस्त दृश्यमान विरोधों में सामंजस्य स्थापित करती है । भारतीय जनता की विविध सावनाओं की सब से सुन्दर परिणति को ही भारतीय संस्कृति कहा जा सकता है ।"२ भारतीय संस्कृति का बड़ा गुण उसका समन्वय प्रधान होना है । भारतीय संस्कृति १. भजनसंग्रह, धर्मामृत, प्रस्तावना, पृ० १८ । २. अशोक के फूल, "भरतवर्ष की सांस्कृति समस्या" निबंध, पृ० ६३ ।
SR No.010190
Book TitleGurjar Jain Kavio ki Hindi Sahitya ko Den
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHariprasad G Shastri
PublisherJawahar Pustakalaya Mathura
Publication Year1976
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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