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आलोचना-खंड
नयणि नीर काजलि गलि, रलदलि भामिनी पूर ।
किम करू कहिरे साहेलडी, विहि नडि गयो मझनाइ ॥७१॥"?
कवि समयसुन्दर, यशोविजय, जिनहर्ष, धर्मवर्द्धन, विनयचन्द्र, कुमुदचन्द, रत्नकीर्ति, शुभचंद आदि अनेक कवियों ने नेमी और राजुल के प्रेम से संबंधित कई पदों की रचना की है । इनमें राजुल के रूप में कवियों की विरहिणी भक्त-आत्मा की सच्ची पुकार अभिव्यक्त हुई है। इसी प्रकार की करुण पुकार कुमुदचंद्र की राजुल की उठी है। उसके लिए अब अधिक विरह सहन करना मुश्किल हो गया है। प्रिय का प्रेम भुलाया नहीं जा सकता। तन क्षण क्षण घुल रहा है, उसे न प्यास लगती है और न भूख लगती है । नींद नहीं आती और बार-बार उठकर गृह का आंगन देखती रहती है ।२ कवि रत्नकोति भट्टारक की ,राजुल अपनी सखियों से नेमि से मिलाने की प्रार्थना करती है और कहती है, नेमि के विना यौवन, चन्दन, चन्द्रमा आदि सब फीके लगते हैं। भवन और कानन भरे मन असह्य कामदेव का फन्दा है । माता,पिता, सखियां एवं रात्रि सभी दुःख उत्पन्न करने वाले हैं। तुम तो शंकर कल्याणकारी और सुखदाता हो, कर्म वन्धनों को थोड़ा ढीला कर दो। इन भावों का एक पद द्रष्टव्य है
"सखि को मिलावो नेम नरिंदा ॥ ता विन तनं मन योवन रजत है, चारू चन्दन अरू चन्दा ॥सखि०॥१॥ कानन भुवन मेरे जीया लागत, दुसह मदन को फन्दा। तात मात अरु सजनी रजनी। वे अति दुख को कन्दा सखि०॥२॥ तुम तो संकर सुख के दाता, करम काट किये मन्दा ।। रतन कीरति प्रभु परम दयालु,
सेवत अमर नरिन्दा ॥सखि०॥३॥"३ फिर प्रेम की अनन्यता देखिए, राजुल के घर स्वयं नेमि आये है । मृगनयनी राजुल उत्पुल्ल हो उठी है, प्रभु की रूप सुधा में सराबोर हो गई है
१. वही, वीर, विलास फाग, वीरचन्द्र । २. इसी अन्य का दूसरा प्रकरण, कुमुदचन्द्र । ३. हिन्दी पद संग्रह, संपा० कस्तूरचंद कासलीवाल, जयपुर, पृ० ५।