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प्रकरण : ६ आलोच्य युग के जैन गूर्जर कवियों की कविता में प्रयुक्त काव्य-रूप
प्रत्येक कवि को उत्तराधिकार में अनेक परम्पराएँ प्राप्त होती है । ये परम्पराएँ ही प्रयोग सातत्य से किसी काव्य-रूप विशेष को रूढ़ करती जाती है। रूप अपनी आदिम अवस्था में किसी कवि के द्वारा किसी उद्देश्य को लेकर, जो संख्या व विषय को लेकर भी हो सकता है, छन्दोवद्ध विधान होता है। इस प्रकार के विधान के अन्तर्गत संख्या को लेकर जहां वावनी, शतक व सतसयों आदि का परिगणन किया जा सकता है वहां राग, नृत्य, धर्म, उपदेश, पर्व, ऋतु, मास, प्रबन्धादि की दृष्टि से अनेक काव्य-रूप प्रकल्पित किए जा सकते हैं। काव्य-रूपों के इस वैविध्य को ध्यान में रखकर अध्ययन की सुविधा के लिए हम आलोच्य युगीन कवियों की कविता में प्रयुक्त काव्य-रूपों का वर्गीकरण निम्न प्रकार से कर सकते है
(१) विपय तथा छन्द की दृष्टि से-रास, चौपाई, वेलि, ढाल, चौढालिया, गजल, छन्द, नीसाणी, कुण्डलियां, छप्पय, दोहा, सवैया, पिंगल।
(२) राग और नृत्य की दृष्टि से-विवाहलो, मंगल, प्रभाती, रागमाला।
(३) धर्म उपदेश आदि की दृष्टि से-पूजा, सलोक, वंदना, स्तुति, स्तोत्र, गीत, सज्झाय, विनती, पद, नाममाला ।
(४) संख्या की दृष्टि से-अष्टक, बीसी, चौबीसी, बत्तीसी, छत्तीसी, वावनी, बहोत्तरी, शतक ।
(५) पर्व, तुऋ,मास आदि की दृष्टि से-फाग, धमाल, होरी, बारहमासा। (६) कथा-प्रवन्ध की दृष्टि से-वन्ध, चरित्र, संवाद, आख्यान, कथा ।
(७) विविध विषयों की दृष्टि से-प्रवहण, वाहण, प्रदीपिका, चन्द्राउला, चूनड़ी, सूखड़ी, दुवावैत ।
(१) विपय तथा छन्द की दृष्टि से प्रयुक्त काव्य-प्रकार
रास : रास ग्रंथों की रचना अपभ्रंश काल से ही होती रही है । अपभ्रंग की रास परम्परा का विशेषत: जैन कवियों ने देशी भापाओं में भी निर्वाह कर उसे