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मालोचना-खंड
देह न गेह न नेह न रेह न, मावे न दुहडा गाह।
आनंदधन वहालो वाहडी साहि, निशदिन धरू उछाह रे ॥३॥"?
अलौकिक दाम्पत्य प्रेम की अभिव्यक्ति आनन्दघन के पदों की विशेष भाव सम्पत्ति कही जा सकती है। प्रिय के प्यारे के लिए प्रिया हमेशा तरसती रहती है। कमी अपने पर और प्रिय पर से विश्वास भी उठने लगता है। ऐसे समय 'चेतन' 'समता' से कहते हैं, 'तू तो मेरी ही है, मेरी पत्नी है. तू डरती क्यों है ? माया-ममता आदि तेरे प्रतिस्पर्धी अवश्य है। पर ये डेढ़ दिन की लड़ाई में शांत हो जायेंगे । इस बात में कोई कपट नहीं है ।२ कवि ने अनेक सुन्दर रूपकों द्वारा प्रतिरूपी मुक्त-आत्मा और पत्नी रूपी समता (जीव) का सम्बन्ध लोकोत्तर भाव भूमि पर अभिव्यक्त किया है।३ अनेक स्थलों पर इनकी विरहानुभूति भी अत्यन्त मार्मिक बन पड़ी है ।४ कवि यशोविजय का भक्त हृदय भी चेतनरूप ब्रह्म के विरह में व्याकुलता अनुभव करता है। भक्त की आत्मा प्रेम-दीवानी वनकर पिउ पिउ की पुकार करती है। वह अपनी सखी से पूछती है, चेतनरूप प्रिय कब मेरे घर आयेंगे । अरि ! मैं तेरी बलया लेती हूँ तू बता दे, वे कव मेरे घर आयेंगे । रात-दिन उनका ध्यान करती रहती हूँ, प्रतीक्षा करती हूँ, पता नहीं वे कब आयेंगे। विरहिणी की व्याकुलता, उत्कांठा और प्रतीक्षा के भाव द्रष्टव्य हैं
"कब घर चेतन आवेगे ? मेरे कब घर चेतन आवेंगे? सखिरि ! लेवु वलया बार वार, मेरे कव घर चेतन आवेंगे? रेन दीना मानु ध्यान तुसाढा, कवडंके दरस देखावेंगे? विरह-दीवानी फिरु ढूढ़ती, पीउ पोउ करके पोकारेंगे; पिउ जाय मले ममता सें, काल अनन्त गमावेगे । करूं एक उपाय में उद्यम, अनुभव मित्र बोलावेंगे;
आय उपाय करके अनुभव, नाथ मेरा समझावेंगे।"५
कभी वह चेतन रूप ब्रह्म के दर्शन के लिए ललाचित है,६ तो कभी 'कंत विनु कहो कौन गति नारी' समझ कर प्रिय को मना लेना चाहती है ।७ १. वही-(देखिए पिछले पृष्ठ पर)। २. आनन्दघन पद संग्रह, अध्यात्म ज्ञान प्रसारक मण्डल, बम्बई, पद ४३-४४ । ३. वही, पद ३० । ४. वही, पद १६, ३६, ६२ । ५. गूर्जर साहित्य संग्रह, भाग १, यशोविजयजी, पृ० १६९-७० । ६. वही, पृ० १७१ । ७. वही, पृ० १७०।
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