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जन गूर्जर कवियों की हिन्दी कविता
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वार्मिक विचार : धार्मिक सहिष्णुता
उदार असाम्प्रदायिक धर्मतत्व की जहा बात होती है, वहां दो वस्तुएं मुख्य रूप से आती हैं- एक व्यवहार और दूसरा विचार । व्यवहार की दृष्टि से तो इन वीतरागी कवियों ने अपनी वीतरागिता का उज्ज्वल प्रमाण दिया ही है। सभी कवि जैन धर्मावलंबी या दीक्षा प्राप्त कवि हैं। अतः इनकी दृष्टि के समक्ष जैन धर्म मुख्य है । परन्तु सम्प्रदाय मूलक धर्म लक्ष्य प्राप्ति का साधन है, साध्य नहीं। जो साध्य के नजदीक पहुंचाते हैं, ऐसे सभी धर्म उस "एक" में लय हो जाते हैं। इस स्थिति पर जिस धर्म की अभिव्यक्ति होती हैं वह असाम्प्रदायिक, उदार और विश्वजनीन होती है । इस स्थिति का वास्तविक अनुभव महात्मा आनंदघन कर सके थे, यही कारण है कि इन्होंने धर्म विशेष में मान्य किसी एक ही देवता को नहीं माना, इनकी दृष्टि में राम, रहीम, महादेव, पार्श्वनाथ और ब्रह्मा में कोई भेद नहीं है, ये मव एक अखण्ड आत्मा की खण्ड कल्पनाएं है। जैसे एक ही मृतिका भाजन-भेद से नाना रूप धारण करती है, ठीक ही एक आत्मा में अनेक कल्पनाओं का आरोपण किया जा सकता है। यह जीव अपने पद में रमे तव राम; दूसरों पर दया दृष्टि बरसाये तब रहीम, कर्म करता है तब कृष्ण और जव निर्माण प्राप्त करे तव महादेव की संज्ञा से अभिहित है। अपने शुद्ध आत्मरूप को स्पर्श करने से पारस और ब्रह्य का साक्षात्कार करने से इसे ब्रह्म कहते है। आत्मा स्वतः चेतनमय और "निःकर्म"
"राम कहो रहेमान कहो कोउ, कान कहो महादेव री, पारमनाथ कहो कोउ ब्रह्मा, सकल ब्रह्म स्वयमेव री । भाजन भेद कहावत नाना, एक मृतिका रूप री । तैसे बंड कल्पना रोपित, आप अखंड स्वरूप री। निज पद रमे राम सो कहिए, रहिम करे रहेमान री। करशे कर्म कान मो कहिए, महादेव निर्वाण री ॥ परसे रूम पारस सो कहिए, ब्रह्म चिन्हे सो ब्रह्म री । इस विध साधो आनन्दधन, चेतन मय निःकर्म री ॥"?
महात्मा आनन्दधन की तरह ब्रह्म की एकता या सभी धर्मों के देवों के प्रति समान भाव की अभिव्यक्ति कवि यशोविजय जी न इस प्रकार की है
१. आनंदघन पद संग्रह, पद ६७ वां