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________________ २३४ आलोचना-खंड भावइ तू भूख तृषा सहि वन रिह, भावइ तू तीरथ न्हाई । भावइ तू साधू भेख धरि बहु परि, भावइ तू भसम लगाइ ॥ २ ॥ भावइ तू पढ़ि गुणि वेदपुराण, भावइ तू भगत कहाइ । समयसुन्दर कहि नाच कहूं गुण, ध्यान निरंजन ध्याइ ॥ ३ ॥"१ इसी तरह एक अन्य जगह पर कवि की सर्वधर्म समभाव मयी संतवाणी स्फुरित हुई है, जिसमें समाज में प्रचलित वाह याचारों की झांकी तो मिलती ही है कवि ने सरल भाव से अपना निष्पक्ष, उदात्त विचार भी प्रस्तुत कर दिया है "कोलो करावउ मुंड-मुंडावउ, जटा घरौ को नगक रहउ ! को तप्प तपउ पंचागनि, साघउ कासी करवत कष्ट सहर । को भिक्षा मांगउ भस्म लगावउ मौन रहउ भावइ कृष्ण कहउ । समयसुन्दर कहइ मन सुद्धि पाखइ, मुगति सुख किमही न लहउ ॥१६॥"२ कवि यशोविजय जी ने भी इस प्रकार के वाह याचारों का खण्डन करते हुए कहा है "मुंड मुंडावत सबहि गडरिया, हरिण रोझ वन धाम । जटा धार वट भस्म लगावत, रासम सहतु हे घाम ॥ ऐते पर नहीं योग की रचना, जो नहि मन विधाम । चित्त अंतर परके छल चिंतवि, जे कहा जपत मुख राम ॥"३ कवि जिनहर्ष भी वाह्याडम्बर के कट्टर विरोधी थे। उनकी दृष्टि से सिर मुडाना, जटा धारण करना, केश चन करना; दिगम्वर सब व्यर्थ है । इनसे मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती । मोक्ष के लिए ज्ञान अनिवार्य है ।४ कवि किगनदास भी बाह्याडम्बरों की व्यर्थता सिद्ध करते दिखाई देते है ।५ इस प्रकार ये कवि अपने मौलिक चिंतन और आचार द्वारा अनपढ़ मिथ्याडम्बरों में प्रवृत्त समाज में साहित्य-साधना, जीवन साधना और आध्यात्मिक साधना की चेतना जगाते रहे । इनका काव्य जहां एक ओर लौकिक आनन्द प्रदान करने में समर्थ हैं वहां यह आध्यात्मिक आनंद से भी पाठक-श्रोता को परिलुप्त करता है। १. समयसुन्दर कृत कुसुमांजलि, अगरचंद नाहटा, पृ० ४३४ । २. वही, पृ० ५१८ । ३. भजन संग्रह, धर्मामृत, पं० बेचरदास, पृ० ५३ ४. जसराज वावनी, जिनहर्प ग्रथावली, पृ० ६२-६३ ५. अम्बाशंकर नागर, गुजरात के हिन्दी गौरव ग्रंथ, पृ० १६०
SR No.010190
Book TitleGurjar Jain Kavio ki Hindi Sahitya ko Den
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHariprasad G Shastri
PublisherJawahar Pustakalaya Mathura
Publication Year1976
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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