________________
जैन गूर्जर कवियों की हिन्दी कविता
बंभण क्षत्रिय वैश्य न शुद्र,
अप्पा राजा नवि होय क्षुद्र ७०॥"१ " कवि यशोविजय ने भी एक सच्चे संत की भांति नीच कुलोत्पन्न के लिए भी सिद्धि का मार्ग खुला बताया है और समस्त जातियों को समाज में एक समान माना है
"कहै जु तत्र समाधि ते, जाति लिंग नहि हेत, चंडालिक जाति कों, क्यों नहि मुक्ति संकेत ? गुण-थानक प्रत्यय मिट, नीच गोत्र की लाज,
दर्शन ज्ञान - चरित्र को, सब ही तुल्य समान ।"२ धर्म के नाम पर समाज में अनेक बाह य आडम्बर और पाखण्ड बढ़ गये थे। संतों की तरह इन जैन कवियों ने भी उनका खण्डन किया। कवि यशोविजय जी ने लिखा है, संयम, तप क्रिया आदि सव शुद्ध चेतन के दर्शनों के लिए ही किया जाता है, यदि उनसे दर्शन नहीं तो वे सब मिथ्या है। अन्तरचित के भीगे विना दर्शन नही होते । जब तक अन्तर की “लौ" शुद्ध चेतन में न होगी, ऊपरी क्रिया काण्ड व्यर्थ हैं
"तुम कार्न संयम तप किरिया, कहो कहां लों कीजे । तुम दर्शन बिनु सब या झूठी, अन्तर चित्त न. भीजे ।"३
कवि उदयराज ने मोक्ष - प्राप्ति के लिए जटा बढ़ाने या सिर मुंडाने के विरोध में कहा है, अन्तःकरण की शुद्धता बड़ी चीज है, बाह्याडम्बरों से लक्ष्य सिद्ध नहीं होता। शिव-गिव का उच्चारण करने से क्या होता है, यदि काम, क्रोध और छल को नहीं जीता । जटाओं को बढ़ाने से क्या होता है, यदि पाखण्ड न छोड़ा। मिर मुड़ाने से क्या होता है, यदि मन को नहीं मूहा । इसी प्रकार घर-बार छोड़ने से क्या होता है, यदि वैराग्य की वास्तविकता को नहीं समझा।४
कवि समय सुन्दर ने भी मुक्ति के लिए चित्त शुद्धि को सर्वोपरिता दी है। बाह याचार भले निभाओं पर उनमें लक्ष्य तक पहुंचाने की सामर्थ्य नहीं
"एक मन मुद्धि विन कोउ भुगति न जाइ ।।
मावडं तू केश जटा धरि मस्तिक, भावइ तु मुड मुडाइ ।।१।। १. "तत्वमार दूहा", शुभचंद्र, ठोलियान मंदिर, जयपुर की प्रति । २. दिक्पट चौरामी बोल, यशोविजय जी, गूर्जर साहित्य संग्रह, पृ० ५६०-६१ ३. भजन मंग्रह, धर्मामृत, पं० बेचन्दास, पृ० ५४ । ४. गुण बावनी, उदयराज, प्रकरण २