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परिचय
इस प्रकार देखने से नागंगतः यह कहा गफना में यि आनन्दपन जी पाचार की भांति ज्ञानवादी व रहस्यवादी कवि थे। इनकी मागत यों तो राज है किन्तु इन पर गुजराती, मारवाड़ी, पंजाबी आदि भाषाओं का प्रभाव गुट इन प्रकार दिनाई दे जाता है कि उने नीधी भाषा में मधुक्कड़ी गह देना अनुचित न होगा। उनमा छन्दविधान विभिन्न राग-रागनियों में निबद्ध है। इनके प्रमुख राग-विलायन, टोडी, सारंग, जयजयवन्ती,रोदार आगावरी, अनंत, गोरठ दीपक मानकॉन आदि । में राग त्रिताल, चौताल, एक ताल और धमार आदि तालों पर निबद्ध है। यगोविजयजी उपाध्याय : (सं० १६८०-१७४३) ।
काशी में रह कर तत्कालीन सर्वोत्कृष्ट विहान भट्टाचार्य जी के सानिध्य में रहकर पडदर्शन का ज्ञान प्राप्त कर द्वितीय हेमचन्द्राचार्य का विरुद धारण करने वाले, वहीं एक सन्यासी को शास्त्रार्थ में पराजित कर न्याय-प्रिशारद की उपाधि प्राप्त करने वाले तथा चार वर्ष मागरे में रहकर तसंपारन व जैनन्याय का तलस्पी भान प्राप्त करने वाले उपाध्याय यशोविजय जी का हिन्दी की कृतियों के अन्तःसाध्य के आधार पर कोई प्रामाणिक जीवनवृत्त प्राप्त नहीं होता। जो कुछ भी प्राप्त होता है उसके दो स्रोत हैं-(१) समकालीन मुनिवर कान्तिविजय जी की गुजराती काव्यकृति 'नुजसवेलिमास', तथा (२) महाराजा कणंदेव का वि० सं० १७४० का तानपत्र । इस ताम्रपत्र से यह सिद्ध होता है कि इनका जन्म गुजरात में पाटण के पास कनाडा गांव में हुआ था। इनका जन्म-काल अभी तक निश्चित नहीं किया जा सका है। अनुमान है कि इनका जन्म सम्वत् १६७० ले १६८० के बीच में कमी हआ होगा। इनका मरण डमोई (गुजरात) में १७४३ में हुआ। इनके पिता का नाम नारायण और माता का नाम सामाग्य देवी था। माता-पिता की धर्म परायणता, उदारता, तथा दानशीलता के संस्कार पुत्र पर पूर्णतः पड़े दिखाई देते हैं।
प्राप्त रचनाओं के आधार पर इनका साहित्य-सृजन-काल वि० सं १७१६ से १७४३ तक माना जा सकता है। इनके द्वारा रचित ३०० ग्रन्थों में से लगभग ५-६ रचनाएँ तथा कुछ फुटकर पद ही हिन्दी के माने जा सकते हैं। शेष रचनाएँ संस्कृत, प्राकृत गुजराती में लिखी गई हैं। उपाध्याय जी की रचनायें सरल भाषा में रसपूर्ण ढंग से लिबी होने पर भी सामग्री की दृप्टि मे अत्यन्त गरिष्ठ हैं 'आनन्दधन अष्टपदी', जैसा कि हम पहले कह आए हैं, आनन्दघन जी की स्तुति में लिखी गई रचना है। 'मुमति' सखी के साय मस्ती में झूमते हुए, आत्मानुभवजन्य परमआनन्दमय अद्वैत दशा को प्राप्त अलौकिक तेज से दीपित योगीश्वर रूप आनन्दधन को देखकर यशोविजय के मन में जो भावोद्वेक हुआ उसे उन्होंने इस प्रकार प्रकट किया--