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परिचय खंड
"वालमीयारे विरथा जनम गमाया, पर संगत कर दर विसी मटका, परसे प्रेम लगाया। परसे जाया पर रंग भाया, परकु भोग लगाया। १"
दिव्य अनुभूति की इस मावामिव्यक्ति में सहज कवित्व के दर्शन होते हैं । भाषा सरल, सादी एवं प्रभावशाली है। भापा पर गुजराती का प्रभाव स्पष्ट लक्षित है । कवि की विभिन्न मुक्तक कृतियाँ मापा, भाव और शैली की दृष्टि से बड़ी समृद्ध एवं हिन्दी की उत्तम कृतियो में स्थान पाने योग्य है । धर्मवर्धन : ( सं० १७०० (जन्म) - १७८३ ८४ (मृत्यु) )
आप खरतरगच्छीय जिन भद्रसूरि शाखा में हुए विजयहर्प के शिष्य थे । २ इन्होंने १६ वर्ष की उम्र में प्रथम कृति "श्रेणिक चौपई" की रचना की । ३ इस आधार पर इनका जन्म सम्वत् १७०० सिद्ध है । इनका मूल नाम धर्मसी अथवा धर्मसिंह था । १३ वर्ष की अल्पायु में खरतरगच्छाचार्य श्री जिनरत्नसूरि से दीक्षा ग्रहण कर अपने विद्यागुरु विजयहर्प से इन्होंने अनेक शास्त्रों एवं मापाओं में विद्वता प्राप्त की । इन्हें उपाध्याय और महोपाध्याय पद से भी विभूपित किया गया । सम्वत १७८३-८४ में कवि ने यशस्वी एवं दीर्घजीवन पावन कर अपनी इहलीला संवरण की। ४
कवि की विभिन्न राजस्थानी तथा गुजराती कृतियां गुजरात में रचित प्राप्त है। ५ इन कृतियों से उनके गुजरात के विभिन्न नगरों-ग्रामों में विहार कर धर्मप्रचार करने की वात पुष्ट होती है । अतः कवि का गुजरात से दीर्घकालीन सम्बन्ध सिद्ध ही है।
कवि धर्मवर्धन के शिप्य विद्वान तथा कवि थे। इनकी शिष्य-परम्परा १६वीं शती तक चलती रही। आप राजमान्य कवि थे। ये अनेक विषयों के ज्ञाता, वहु भाषाविद्, एवं समर्थ विद्वान थे। संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश आदि भाषाओं में भी इनकी उच्चकोटि की रचनाएं मिलती हैं। कवि की अधिकांश हिन्दी कृतियां ( राजस्थानी, डिंगल, पिंगल कृतियां) प्रकाशित को चुकी है। ६ डिंगल-गीत अपनी
१ जैन गूर्जर कविओ, भाग २, पृ० ३३३ २ र्जन गूर्जर कविओ, भाग २, पृ. ३३९ ३ "श्रोणिक चौपाई", जैन गूर्जर कविओ, भाग ३, खण्ड २, पृ० १३१२ ४ राजस्थानी, वर्ष २, अंक २, भाद्रपद १६६३, श्री नाहटाजी का लेख ५ शनिश्चिर विक्रम चोपई, जैन गूर्जर कविओ, भाग २, पृ० ३४१ ६ धर्मवर्धन प्रथावली संपादक श्री अगरचन्द नाहटा, सा० रा०रि० इ०, बीकानेर ।