________________
जैन कवियों को हिन्दी कविता
विषयों में स्वभावतः ही साहित्य की दोनों विधाओं-गद्य और पद्य का समावेश हो जाता है | अतः विषय की व्यापकता और अपने समय व सामर्थ्य की सीमालों को देखकर केवल "पद्य" पर काम करना मुझे अधिक समीचीन लगा । इनकी " गद्य रचनाएँ" एक पृथक् प्रवन्ध की संभावनाओं से गर्भित है ।
समय की सुनिश्चित अवधि में विषय का इतना विस्तार किसी भी प्रकार से सम्भव नहीं हो सकता था। गुजरात में जैन कवियों की हिन्दी पद्यात्मक रचनाएँ भी १५वीं शती से प्राप्त होने लगती हैं । १५वीं शती से आज तक की इस विपुल साहित्य-सम्पदा का अध्ययन भी समय व लेखक की साधन-शक्ति की सीमाओं के कारण, असम्भव था । अतः १४वीं और १६वीं शती ( विक्रम की ) - केवल दो सौ वर्षो की समय-मर्यादा निश्चित करनी पड़ी। उक्त शतियों को कविता को ही लेने का एक विशेष हेतु यह भी था कि इन दो शतियों में संख्या और स्तर — दोनों ही दृष्टियों से अधिक उच्च स्तर के कवि और कृतियाँ समुपलब्ध होती हैं । परिणामतः जो नामकरण उचित हो सकता है वह है- "१७वीं और १८वीं शती के जैन- गुर्जर कवियों की हिन्दी कविता " |
महत्त्व :
२०
प्रस्तुत विषय के महत्त्व को निम्नलिखित दृष्टियों से समझा जा सकता है
(क) प्रस्तुत विषय पर शोध का अभाव ।
( ख ) साहित्य की विपुलता एवं उच्चस्तरीय गरिमा 1
(ग) सम्प्रदायगत साहित्य में साहित्यिकता ।
(घ) हिन्दी के राष्ट्रीय स्वरूप का विकास ।
इस दिशा में अब तक जो गवेषणा हुई वह विशेषतः राजस्थान और गुजरात के विद्वानों के कुछ शोध परक ग्रन्थों तथा विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित फुटकर निवन्धों तक ही सीमित है । स्वतंत्र रूप से गुजरात के जैन कवियों की हिन्दी कविता की गवेषणा इन अध्येताओं में से किसी का मूल प्रतिपाद्य नहीं था। डॉ० अम्वाशंकर नागर को छोड़कर शेप अध्येता जैन गुर्जर कवियों को हिन्दी कविता के प्रति प्रायः उदासीन हो रहे हैं । अतः इस बात की बड़ी आवश्यकता प्रतीत होती रही कि जैनगुर्जर कवियों की हिन्दी रचनाओं की समीचीन गवेषणा एवं उनकी साहित्यिक गुणवत्ता का मूल्यांकन किया जाय ।
भारतीय साहित्य परम्परा के निर्माण में जैन कवियों का योगदान अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । संस्कृत भाषा से प्राकृत, अपभ्रंश तथा अन्यान्य देश्य भाषाओं तक इनकी सृजन-सलिला प्रवहमान रही है । यही कारण है कि जैन साहित्य हिन्दी में भी प्रचुर है, उतना ही विविध शैली सम्पन्न भी है ।