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जैन गुर्जर कवियों की हिन्दी कविता इनका साहित्य अध्यात्मप्रधान है। जैन साधक आध्यात्मिक परम्परा के अनुयायी एवं आत्मलक्षी संस्कृति में विश्वास करने वाले थे फिर भी ये लौकिक चेतनी से विरक्त नहीं थे । क्योंकि उनका अध्यात्मवाद वैयक्तिक होकर भी जन कल्याण की भावना से अनुप्राणित था। यही कारण है कि सम्प्रदायमूलक साहित्य का सृजन करते हुए भी वे अपनी रचनाओं में देशकाल मे सम्बन्धित ऐतिहासिक एवं साँस्कृतिक टिप्पणी दे गये हैं जिनका यदि वैज्ञानिक पद्धति से अध्ययन किया जाय तो भारतीय इतिहास के अनेक तिमिराच्छन्न पक्ष प्रकाशित हो उठे। आत्मा की अनन्त शक्तियों का हृदयकारी वर्णन इस साहित्य में हुआ है। अध्यात्म, शुद्धाचरण एवं महापुरुषों के चरित्रगान से सम्बद्ध विपयों के प्रतिपादन में इन जैन कवियों ने अपनी कला का परिपूर्ण परिचय दिया हैं । औपदेशिक वृत्ति के कारण जैन साहित्य में विषयान्तर से परम्परागत वातों का वर्णन विवरण अवश्य हुआ है, पर सम्पूर्ण जैन साहित्य पिष्टपेषण मात्र नहीं है । जो साहित्य उपलब्ध है वह लोकपक्ष एवं भाषा पक्ष की दृष्टि से बड़ा महत्वपूर्ण है। जैन कवियों ने भारतीय चितना को जनभापा समन्वित शैली में ढालकर राष्ट्र के अध्यात्मिक स्तर को ऊँचा उठाया है। इन्होंने साहित्य परम्परा को लोक भाषाओं के वहते नीर में अवगाहन कराकर सर्व सुलभ बना दिया है ।
जैन कवियों को इस सम्पदा को मात्र धार्मिक अथवा साम्प्रदायिक मानकर अन्त तक इसके प्रति उपेक्षा का भाव रखा गया है। क्योंकि आलोचकों की दृष्टि में में यह साहित्य- .
(१) ज्ञानयोग की माधना है, भावयोग की नहीं। (२) मात्र साम्प्रदायिक है, सार्वजनीय नहीं। (३) एकांगी हष्टि का परिचायक है, विस्तार का नहीं, तथा । . -(४) इसका महत्व मात्र भाषा की दृष्टि से है, साहित्य की दृष्टि से नहीं ।
वास्तव में धर्म को साहित्य से अलग मानकर चलना साहित्यिक तत्त्वों की उपेक्षा करना है। साहित्य का धार्मिक होना कदापि अग्राह्य नहीं हो सकता । अगर ऐसा हो तो हम अपने मूर्धन्य महात्मा सूर एवं महाकवि तुलसी से भी हाथ धो वैठेगे । क्योंकि आखिर तो उनका साहित्य भी धार्मिक संदेशों का वाहक है । "यदि १. "उनकी रचनाओं का जीवन की स्वाभाविक शरणियों, अनुभूतियों और दशाओं
से कोई सम्बन्ध नहीं । वे माम्प्रदायिक शिक्षा मान हैं। अतः शुद्ध साहित्य की . कोटि में नहीं आ सकती। उनकी रचनाओं की परम्परा को हम काव्य या साहित्य की कोई धारा नहीं कह सकते।"
हिन्दी साहित्य का इतिहास : रामचन्द्र शुक्ल, पृ. २४