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"शीतल शीतल नाथ सेवों, गर्व गाली रे - 1 भव दावानल भंजवाने, मेघ माली रे | शी० १ ara रुधी एक बुद्धि, आसन वाली रे । ध्यान एहनु मनमा धरो, लेई ताली रे ॥ शी० २ काम ने वाली, क्रोव ने टाली, रांग ने राली रे ।
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उदय प्रभु ध्यान धरतो, नित दीवाली रे ॥ शी० ३
संगीतमयता, पद- लालित्य, अर्थ-सारस्य एवं सरल भाववोही शैली में चिरंतन उपदेश देना कवि की कला है ।
परिचय खंड
सौभाग्यविजयजी : ( रचनाकालं सं० १७५० आसपास )
श्री मोहनलाल दलिचन्द देसाई ने दो तपगच्छीय जैन साधु सौभाग्य विजय का उल्लेख किया है । एक साधुविजय जी के शिष्य जिन्होंने संवत् १७१३ के बाद जूनागढ़ में 'विजयदेवसूरि सज्झाय' की रचना की । १ दूसरे हीरविजयसूरि की परम्परा में लालविजय के शिष्य थे जिन्होंने “ सम्यकत्व ६७ बोल स्तवन" तथा 'तीर्थमाला स्तवन' ( संवत् १७५० ) की रचना की । २ इन दोनों से ये सौभाग्यविजय जी पृथक लगते हैं । इनकी गुरु परम्परा, जन्म तथा विहारादि का पता नहीं चला है । इन सोभाग्यविजय जैन गूर्जर साहित्य रत्नो, भाग १ में दिया गया है । ३ इनकी रचित चोवीसी' से कुछ स्तवन भी इसमें संकलित हैं। चौवीसी की रचना बड़ी सुन्दर बन पड़ी है । भाषा पर गुजराती-मारवाड़ी का प्रभाव है । इसकी रचना संवत् १७५० के आसपास हुई है । उदाहरणार्थ एक प्रसंग अवलोकनीय है जिसमें राजुल की मिनोत्कंठा तथा विरहनिवेदन सूर की गोपियों की याद दिला देता है । कवि पार्श्व के रूप-सौन्दर्य का कितना - चित्ताकर्षक चित्र प्रस्तुत करता है
"छयल छवीली मोहन मूरति, तेज पुंज रॉजई रवि किरणो; वदनं कर्मलं सारद शणि सोमई, नाग लोण जैन चित्त हरणो । अजव आगि जिम अंगि विराजई, भाल तिलकं सिर मुकूट वणो ; कुसुम महाल मांहि जिनवर बइठे; धन धन सो निरखई नयणे । सूर-असुर-नर द्वारई बइठे भगति करई तुज जित लीणो ; सोग के प्रभु पास चितामणि सकल मन वंचित करणो ।।"
१ जैन गूर्जर कविओ, भाग २, पृ० १८०
२ जैन गूर्जर कविओ, भाग ३, खण्ड २, पृ० १३६७-६८
३ जैन गुर्जर साहित्य रत्नो, भाग १, सूरत, पृ० २०६-२१०