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जैन गुर्जर कवियों की हिन्दी कदिता : ज्ञानसार ने इनको अवध्य ववनी कहा है. १. अर्थात् इनके वचनों में लोगों की अपार श्रद्धा थी । सं० १६६६. में अषाढ सुदि नवमी . को पाठणा. में इनका स्वर्गवास हुआ। ... . .. . ... ... ...
.... . ...... जिनराजसूरि अपने समय के एक अच्छे विद्वान एवं कवि थे। कवि की कुशाग्र बुद्धि एवं वाल्यावस्था के अध्ययन के सम्बन्ध में "श्रीसार" ने अपने रास में लिखा है-
.. .......:. : .:. . . . "तेह कला कोई नहीं, ; शास्त्र नहीं वलि तेह. . . . . . . . ... . . : विद्या ते · दीसइ. नहीं, कुमर नइ नावह जेह ॥ ३ ॥", ... ... .. ..
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.......... आदि- .
. .. . इनकी .. उपलब्ध रचनाओं में . सर्वप्रथम · रचना सं० १६६५ को रचित "गुणस्थान विचारमित पार्श्वनाथ स्तवन" है, जो जैन शास्त्र के कर्म सिद्धांत और आत्मोत्कर्ष की पद्धति से सम्बन्धित है । इनकी ६ कृतियां प्राप्त है । २ . . .. इनके द्वारा रचित "गुणधर्म रास", १६६६ तथा "चन्दराजा चौपाइ” का भी उल्लेख श्री चोक्सी ने किया है । ३. श्री . नाहटाजी. ने "कयवन्ना रास” तथा "जैन रामयण" का राजस्थानी रूप आदि का उल्लेख किया है.। ४.. . . .
सादुल राजस्थानी रिसर्च इन्स्टीट्युट, बीकानेर की ओर से श्री अगरचन्द नाहटा के सम्बादकत्व में कवि की: प्रायः सभी महत्वपूर्ण कृतियों का संकलन "जिनराज-कृति-कुसुमांजलि" नाम से प्रकाशित हुआ है । . , .::..
____ श्री नाहटाजी ने कवि की एक सब से बड़ी और महत्वपूर्ण रचना "नैवधमहाकाव्य" की ३६००० श्लोक परिमित वृहट्ठी का उल्लेख भी किया है, जिसकी दो अपूर्ण प्रतियों में पहलो हरिसागरसूरि जान भण्डार, लोहावर में तथा दूसरी औरियन्टल इंस्टीटयुत, पूना में है। एक पूर्ण प्रति जयपुर के एक जैनेतर विद्वान के संग्रह में महोपाध्याय विनयसागरजी. के द्वारा देखे जाने का भी उल्लेख है। ५ अन्तिम प्रशस्तियों के अभाव में इनकी प्रतियों की रचना कब और कहां हुई इसका पता नही चता है । इस वृहदवृति से कवि का काव्यशास्त्र में प्रकाण्ड पण्डित होता सिद्ध होता है। १ जैन गूर्जर साहित्य रत्नो, भाग १, सूरत से प्रकाशित, पृ० ५६ : . . . २ जैन गूर्जर कविओ, भाग १, पृ० ५५३-६१ तथा भाग ३, खंड १, पृ० १०४७-४६ ३ सतरमां शतकना पूर्वार्धनां जैनगर्जर कविओं (पांडु लिपि.) श्री वी० जै० चोक्सी ४ परंपरा - श्री नाहटाजी का लेख, राजस्थानी साहित्य का मध्यकाल, पृ० ८३ ५ जिनराजसूरि कृति कुसुमांजलि, भूमिका, पृ. ध । न ।