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________________ जैन गुर्जर कवियों की हिन्दी कविता ११५ कवि की विविध फुटकर रचनाओं में विरह, प्रकृति, भक्ति, वैराग्य · तथा उपदेश के अनेक रंगी चित्र उतरे हैं। विरह वर्णन के द्रसंगों में प्रकृति का उद्दीपन रूप भी कवि ने बताया है। ___कवि ने कथात्मक और स्तुतिपरक इन रचनाओं के साथ आध्यात्मिक उपदेशपरक पद, गीत, तया छत्तीसियों की भी रचना की है जो "जिनराज कृति-कुसुमांजलि" में संकलित हैं । कवि ने इन स्फुट पदों में संसार की अतारता, जीवन की क्षणभंगुरता तया धर्म-प्रमावना के जो चित्र प्रस्तुत किये हैं उनमें संत कवियों का-सा वाह्य क्रिया-कांडों के प्रति विरोव है तो भक्त कवियो की तरह दीनता और लघुता का भाव है। ___कवि ने अपनी शील बत्तीसी और कर्मबत्तीसी में शीलधर्म और कर्म की । महिमा बताई है । शील का माहत्म्य वर्णन करता हुआ कवि कहना है "सील रतन जतने करि राखउ, वरजउ विषय विकारजी। . . . सीलवन्त अविचल पद पामइ, विषई रूलइ संसार जी ॥" (पृ० ११२) कवि की इन अध्यात्म रस की कृतियों में संसार की भौतिकता से ऊँचे उठाने की महा शक्ति है, एक पावन प्रेरणा है । कवि खुलकर अपनी कमजोरियाँ बताता है, एक एक करके अपने अज्ञान का पर्दाफाश करता चला गया है पर कहीं भी हतोत्साह की हकी रेवा मी नहीं आ पाई हैं। कवि जीव मात्र को उस अमर ज्योति के अनन्त-स्निग्य प्रकार से आलोकित करना चाहता है । कवि सरल भाव से आत्मीयता दिखाता हुआ जीव मात्र को इस मार्ग की ओर ले जाना चाहता है "मेरउ जीव परभव थई न उदई । - ( पृ० ६६ )" : . . राभाय ग की कया मी कवि से अछती नही है । रामायण सम्बन्धी संवादात्मक गेय गैती में बड़े ही मार्मिक और सीधी चोट करने वाले पद भी कवि ने लिखे हैं। . आचार्य जिनराजसूरि धर्मोपदेशक और कुशल कवि दोनों थे । उनकी भापा में सादगी है, साहित्यिकता है, भावावेग है और अकृत्रिम अलंकरण भी है । उपमा, रूपक, तथा उपेक्षा का सहज प्रयोग, कहावतों व मुहावरों का प्रचलित रूप तया विविध छन्द योजना मापा की शक्तिमत्ता में सहायक है । भापा बड़ी ही · सरल, सरस, सुबोध तथा माधुर्यगुण और नाद-सौन्दर्य ते युक्त है। विविध प्रकार की दालों और राग-गगिनियों के सफल प्रयोग से काव्यवीणा के तार. स्वतः भनकृत हो उटे है।
SR No.010190
Book TitleGurjar Jain Kavio ki Hindi Sahitya ko Den
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHariprasad G Shastri
PublisherJawahar Pustakalaya Mathura
Publication Year1976
Total Pages353
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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