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आलोचना-खंड
"जीवन जरासा दुख जनम जरा सा ताप । डर है खरा-सा काल शिरपै खरा-सा है ।। कोऊ विरलासा जो पै जीवै द्वे पचासा अंत । वन विच बासा यह बात का खुलासा है । संध्या का-सा बान करिवरसा कान चलदल का-सा पान चपला का-सा उजासा है ।। ऐसा सा तापै किशन अनन्त आसा । पानी में बतासा तैसा तनका तमासा है ॥३०॥"१
उपर्युक्त पंक्तियों में अनुप्रास-विशेषतः वर्णानुप्रास एवं वृत्यानुप्राम की छटा दर्शनीय है । अनुप्रास के अतिरिक्त अन्य अलंकारों का (यथा-उपमा, उदाहरण आदि का) चमत्कार भी विशेष उल्लेख्य है।
अनुप्रास के अतिरिक्त यमक भी गब्दालंकार ही है। इस युग के जैन कवियों ने इस अलंकार का भी सार्थक प्रयोग किया है--
यमक :
(१) "सारंग देखि सिधारे सारंगु, सारंग नयनि निहारी।"-रत्नकीर्ति२ (२) "कर के मणि तजि के कछु ही अब, फेरह रे मनका मनका।"
-धर्मवर्धन३
उक्त दोनों उदाहरणों में से प्रथम में 'सारंग' शब्द का जो तीन बार प्रयोग हुआ हैं वह तीनों बार ही पृथक् अर्थ को लेकर। इसी प्रकार दूसरे उदाहरण में अनुप्रासश्लिष्ट यमक चमत्कारक्षम है। अर्थालंकार :
जैन कवियों की इन कविताओं में शब्दालंकारों के साथ अनेक अर्थालंकारों का भी प्रयोग हआ है। इन अलंकारों से मात्र स्वरूप-बोध ही नहीं होता अपितु उपमेय के भाव भी उद्बुद्ध होते दिखाई देते है । इस दृष्टि से यहां कुछ अर्थालंकार प्रस्तुत हैं१. गुजरात के हिन्दी गौरव ग्रंथ, डॉ० अम्बाशंकर नागर, १० १६६ ।२. सं० कस्तूरचन्द कासलीवाल, हिन्दी-पद संग्रह, पृ०३। ३. सं० अगरचन्द नाहटा, धर्म बावनी, धर्मवर्धन ग्रंथावली, पृ० १३ ।