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जैन मूर्जर कवियों की हिन्दी कविता
"वाह्य क्रिया करे कपट केलवे, फिर के महंत कहावे,. पक्षपात कबहु नहि छोड़, उनकु कुमति बोलावे ॥ १
महात्मा आनन्दघन जी भी लोग धर्म तत्व के वास्तविक स्परूप को नहीं समझ पाये हैं और बाह्याचार में ही लीन हैं ऐसे लोगो की यथार्थता दिखा कर अपनी धर्म सहिष्णुता का परिचय देते हैं । कवि ने कहा है, "हे अवध ! जगत् के प्राणी मुख से राम नाम गाते हैं, पर उस राम के अलक्ष्य रूप को पहचानने वाले तो विरले ही हैं । विभिन्न मतावलंबी अपने अपने मत अथवा धर्म में ही मस्त हैं, मठाधारी अपने मठ में आसक्त हैं, जटाधारी अपनी जटा में, पाठावारी अपने पाठ में और छत्रधारी अपने छत्र में ही गरम रहते हैं ।"
"अवधू राम राम जग गावे, विरला अलख लगावे || अवधू० मतमाला तो मत में ताता,
मठवाला मठराताः ।
जटा जटाधर पटा पंटाघर,
छता छतावर ताता ॥२
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(२) अन्य सम्प्रदायों का विरोध : कवि यशोविजय जी मे श्वेताम्बरी जैनत्व का भाव प्रवल रहा है । उनके “दवाठ चौरासी बोल" कृति में दिगम्बर धर्म मान्यता के प्रति विरोध इन शब्दों में व्यक्त हुआ है-.
" जैन कहावैं नाम तैं, तातै वढ्यो अंकूर | तनुमल ज्यौं फुनि संत ने कियों दूर तें दूर ॥ भस्मक ग्रह रज भसममय, तातें बेसर रूप ।
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उठे "नाम अध्यातमी", भरम जाल अंध कूप ॥ ३ इसी तरह "जिन" नग्नता के विषय में कहा हैं
"नगन दशा जिनवर धरै नगन दिखावै नाहिं । अंबर हरि खंधे धरै उचित जानि मन माहि ॥ ४
इन विचारों में साम्प्रदायिकता का भाव प्रवल है । कवि ने शिवसुख प्राप्ति
के लिए जै धर्म का सार ग्रहण करने जी सलाह दी है
१. गूर्जर साहित्य संग्रह, भाग १, पृ० १६६
२. आनंदघन पद संग्रह, अध्यात्म ज्ञान प्रसारक मंडल, बम्बई, पद २७
३. गूर्जर साहित्य संग्रह, भाग १, पृ० ५७३-७४
४. वही, पृ० १८३