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बालोचना-वंद
अत: मर्प के समान भयंकर एवं कष्टदायी है। इस प्रतीक द्वारा इन विकारों की भयंकरता अभिव्यक्त करना ही साध्य है। जिनहर्ष की कविता में भी यह प्रतीक, इमी अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। विप :
यह विपयोद्भूत काल का प्रतीक है। 'विप' मृत्यु का कारण है, पर विपय तो मृत्यु से भी भयंकर है। यह जन्म-जन्मान्तरों की मृत्यु का कारण है ! अतः इसकी भयंकरता इम प्रतीक द्वारा अच्छे ढंग से व्यक्त हुई है। महात्मा आनन्दघन, यगोविजयजी किशनदास, समयसुन्दर धर्मवर्धन आदि कवियों ने 'विप' प्रतीक का प्रयोग इसी अर्थ में किया है। कवि कुमुदचन्द्र की कविता में भी यह प्रतीक इसी अर्थ में आया है । निम्न पंक्तियां द्रष्टव्य हैं
"चेतन चेतत किउं वायरे ।। विषय विषे लपटाय रह्यो कहा,
दिन दिन छीजत जात आपरे ॥१॥ तन धन योवन चपल सपन को,
योग मिल्यो जेस्यो नदी नाउ रे ॥ काहे रे मुढ़ न समझत अज हूं,
कुमुदचन्द्र प्रभु पद यश गाउँ रे ॥१॥"२ उक्त पद में प्रतीक अपना रूपकत्व लिए हुए है। तम:
__ यह मोह तथा अज्ञान का प्रतीक है। अज्ञान तथा मोह के कारण मानव अन्तर्दृष्टि खो बैठता है। इसके प्रभाव से विवेक नष्ट हो जाता है। जिनहर्प, समय सुन्दर, धर्मवर्धन, ज्ञानानंद आदि ने इस प्रतीक द्वारा आत्मा की मोह-दशा, मिथ्यात्व और अज्ञान की अभिव्यक्ति की है।
__ 'संध्या'३ तथा अन्य समानार्थी प्रतीक-यह पल-पल परिवर्तनशील मनोदगा तथा जीवन की क्षणभंगुरता का प्रतीक है। कवि किशनदास ने जीवन की अभिव्यक्ति के लिए उसे "संध्या का-सा वान", 'करिवर का-सा कान चल', 'चपला का-सा-उजासा', 'पानी में वतासा' आदि प्रतीक-प्रयोग किए हैं। १. हिन्दी पद संग्रह, संपा० कस्तूरचन्द कासलीवाल, पृ० २० । २. धर्मवर्धन ग्रंथावली, पृ० ८६ तथा
भजनसंग्रह-ज्ञानानंद के पद, पृ० १७ । ३. धर्मवीन ग्रंथावली, पृ० ६० तथा किशनदास की उपदेश बावनी ।
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