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जैन गुर्जर कवियों की हिन्दी कविता वस्तु है.।"१ इन कवियों ने इतिहास पर विशेष भार दिया है । प्रत्येक जैन कवि अपनी रचना के अंत में या पूर्व में अपने समय के शासक -- राजाओं का एवं गुरू परम्परा का कुछ न कुछ उल्लेख अवश्य करते रहे हैं ।
प्राचीन हिन्दी साहित्य के अन्वेपण में पद्य ग्रन्थों की ही प्रधानता रही है, गद्य ग्रन्थ बहुत कम हैं । किन्तु हिन्दी जैन साहित्य के लिए यह विशेप गौरव की बात है कि इसमें गद्य-ग्रंथ भी प्रचुर परिमाण में उपलब्ध हैं । ये ग्रन्थ हिन्दी गद्य के विकास क्रम को दिखाने में यथेष्ट सहायक सिद्ध होगे । १६ वीं शती से १६वीं शती तक के जैन साहित्य में हिन्दी गद्य ग्रन्थ भी प्राप्त होते हैं। गद्य ग्रंथ मेरे विपय की परिधि में नहीं हैं अतः मैंने उन्हें नहीं लिया है।
__जैन कवि किसी के आश्रित नहीं थे। अतः इनके साहित्य में कही भी आत्मानुभूतियों का हनन नहीं हुआ है। अपने साहित्य द्वारा इन कवियों ने अर्थोपार्जन अथवा यश-प्राप्ति का लक्ष्य नहीं अपनाया। भक्तिकाल के प्रायः सभी कवि स्वतन्त्र रहे हैं। वे कभी किसी प्रलोभन के पीछे नही पड़े । यही कारण है कि उनका साहित्य किसी युग विशेप की लाचारी अथवा रसिक वृत्ति का परिणाम न होकर चिरन्तन जीवन सत्य का उद्घाटन करता है। जैन कवि भी विविध कयाओं, काव्यों तथा पदों द्वारा सांस्कृतिक मर्यादा एवं अपने पूर्वावार्यों के धर्मन्यास की रक्षा एवं वृद्धि करते रहे हैं।
१८ वीं शती में तो शृंगार रस की अवाध धारा भक्ति और मर्यादा के कूलों को तोड़कर वह निकली थी। मुक्ति और जीवन शक्ति की याचना की जगह कुत्सितता ने अपना साम्राज्य जमा रक्खा था। जैसा कि कवि देव ने कहा है "जोग हू तें कठिन संजोग परनारी को" लोग परकीया प्रेम के पीछे पागल थे। पत्नीव्रत और 'सच्चरित्नता की भावना विलुप्त होने लगी थी। रीतिकालीन कवियों ने कृष्ण और राधा का आश्रय लेकर अपनी मनमानी वासना की अभिव्यक्ति करते हुए अपने उपास्य देव को गुण्डा और लपट बना दिया है। ऐसे वातावरण में भी जैन कवि इस कुत्सित शृंगार से अलिप्त बने रहे। इन्होंने सच्चरित्रता, संयम, कर्तव्यशीलता और वीरत्व की वृद्धि का-अपना काव्यादर्श सुरक्षित रखा। काव्य का प्रधान लक्ष्य तो काव्यरस की सृष्टि कर मानव के आत्मवल को पुष्ट वनाना और उन्हें पवित्रआत्मवल की खोज के आदर्श पर आरूढ़ करना है। संसार को देवत्व और मुक्ति की ओर ले जाना ही काव्य का सर्वश्रेष्ठ गुण है । जैन कवियों ने इसी अमरता का संगीत अलापा और जनता के पथ-प्रदर्शक बने रहे। __) इन स्रष्टाओं ने नवीन युग के साथ समन्वय न किया हो, यह वात भी नहीं है । यथावसर सामाजिक कुरीतियों, छुआछूत, साम्प्रदायिकता, धार्मिक कट्टरता तथा १. हिन्दी जैन साहित्य का इतिहास पृ० ४-५ ,