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आलोचना-खड़
“पट्टावली” या गुर्वावली " रचनाओं में गुरु-परम्परा का वर्णन होता है । जैन कवियों ने प्रायः अपनी कृतियों के प्रारम्भ में या अन्त में अपनी गुरु परम्परा का उल्लेख किया है, किन्तु कुछ कवियों ने जैन गच्छों की आचार्य परम्परा का इतिवृत्त स्वतंत्र रचनाओं में भी दिया है । ऐसी रचनाओं में ब्रह्म जयसागर रचित 'गुर्वावली गीत' तथा समयसुन्दर रचित 'खरतर गुरु पट्टावली' १ तथा 'गुर्वावली' २ कृतियां उल्लेखनीय हैं ।
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" जकड़ी" जिक्र का ही अपभ्रंश है । इसका अर्थ ध्यान से है । अर्थात् प्रतिक्षण जीवन की व्यावहारिक क्रियाओं में ईश्वर का ध्यान ही जिक्र है । गुजराती शब्द जकड़वु ( जकड़वा ) से इसकी समता देखी जा सकती है । इस दृष्टि से इसे एक विशिष्ट विचारधारा का बन्धन भी मान सकते हैं गुजराती कवि अखा की कड़िया अत्यंत प्रिय तथा प्रसिद्ध हैं । जैन कवियों ने भी ऐसी कुछ जकड़ियों की रचना की है । जिनराजसूरि की चार जकड़ियां प्राप्त हैं जो “जिनराजसूरि कृत कुसुमांजलि" में संग्रहीत है ।
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"हियाली" या " हरियाली" संज्ञक रचनाओं को हिन्दी के कूट - साहित्य की कोटि में रखा जा सकता है । वस्तु विशेष के नाम गुप्त रखते हुए उसे स्पष्ट करने वाली विशेष बातों का वर्णन हो ऐसी रचनाओं को "हियाली" कहते हैं । इनमे बुद्धि की परीक्षा हो जाती है । अनेक "रास" ग्रंथों में आये पति-पत्नी की परस्पर गोष्ठी वर्णन के प्रसंगों में मनोरंजनार्थ ऐसी हीयालियों का प्रयोग हुआ है । १६वीं शताब्दी से हीयालियों की रचना देखने को मिलती है । इन कवियों की प्राप्त "हीयालियां" ५ से १० पद्यों तक ही मिलती हैं । कवि धर्मवर्द्धन तथा समयसुन्दर ने ऐसी अनेक "हीयालियों" की रचना की | समयसुन्दर की हीयाली का एक उदाहरण देखिए -
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"कहिज्यो पंडित एक हीयाली, तुम्हे छउ चतुर विचारी । नारी एक त्रण अक्षर नांमे, दीठी नयर मझारी रे ॥ १ ॥ मुख अनेक पण जीभ नहीं रे, नर नारी सु ं राचइ | चरण नहीं ते हाये चालइ, नाटक पाखे नाचइ रे ।। २ ।। अन्न खायइ पानी नहीं पींवर, तृप्ति न राति दिहाड़इ । पर उपगार करइ पणि परतिख, ३ अवगुण कौडि दिखाइ || ३ ||
१. समयमुन्दर कृत कुमुमांजलि, संपा० अगरचन्द नाहटा, पृ० ३४७ तथा ३४८ ॥ २. ही
३. पापणि ।