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आलोच्य कविता का सामूहिक परिवेश प्रवेश : .
प्राचीन भारतीय संस्कृति अपने विविध रंगों में रंगी हुई है, उसमें अनेक धर्म-परम्पराओं के रंग मिश्रित हैं । भारतीय संस्कृति में प्रधानतः दो परम्पराएब्राह्मण और श्रमण-विशेष ध्यान आकर्षित करती हैं। ब्राह्मण या वैदिक में परम्परा के बीच मौलिक अन्तर है । ब्राह्मण-परम्परा वैषम्य पर प्रतिष्ठित है जबकि श्रमण परम्परा साम्य और समता पर आधारित है । ब्राह्मण परम्परा ने स्तुति, प्रार्थना तथा यज्ञादि क्रियाओं पर अधिक बल दिया, जवकि श्रमण परम्परा ने श्रम पर ।।
प्राकृत शब्द "समण" के तीन संस्कृत रूप होते हैं-श्रमण, समन और शमन ।' श्रमण संस्कृति का आधार इन्हीं तीन शब्दों पर है । श्रमण शब्द "श्रम" धातु से बना है, जिसका अर्थ मुक्ति के लिए परिश्रम करना है । यह शब्द इस बात का प्रतीक है कि व्यक्ति अपना विकास अपने ही श्रम द्वारा कर सकता है । समन का अर्थ है समता भाव अर्थात् सभी को आत्मवत् समझना । सभी के प्रति समभाव रखना । रागद्वेपादि से परे रहकर शन और मिन के प्रति समभाव रखना तथा जातिपांति के भेदों को न मानना आदि । शमन का अर्थ है अपनी वृत्तियों को शान्त रखना । यही श्रमण-संस्कृति की धुरी "ब्रह्म" है, जिसके लिए यज्ञ पूजा, स्तुति आदि आवश्यक हैं।
जैन धर्म इसी श्रमण संस्कृति का एक भाग है । आज जिसे जैन धर्म कहा जाता है वह भगवान महावीर और पार्श्वनाथ के समय में निम्रन्थ नाम से पहचाना जाता था । यह श्रमण धर्म भी कहलाता है । अन्तर इतना ही है कि एक मात्र निग्रंथ ही श्रमण धर्म नहीं है । श्रमण धर्म की अनेक शाखा प्रशाखाए थीं, जिसमें कोई वाह्य तप पर, कोई ध्यान पर, तो कोई मात्र चित्तशुद्धि पर अधिक जोर देती थी, किन्तु साम्य या समता सवका समान ध्येय था । श्रमण परम्परा की जिस शाखा ने संसार त्याग और अपरिग्रह पर अधिक जोर दिया और अहिंसा पर सूक्ष्स दृष्टि से विचार किया वह शाखा निग्रंथ नाम से प्रसिद्ध हुई जो वाद में जैन धर्म भी कहलाने लगी। जैन धर्म साधना :
जैन-धर्म-साधना में धर्म स्वयं श्रेष्ठ मंगल रूप है। अहिंसा, सयम और तप ही धर्म है । ऐसे धर्म में जिनका मन रमता है, उनको देवता भी नमन करते है। दशवकालिक सूत्र में कहा गया है१. भारतीय संस्कृति फी दो धाराए--डॉ० इन्द्रचन्द्र शास्त्री, सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा, पृ० ४ ।